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________________ छठा अध्ययन - प्रथम उद्देशक - कृत कर्मों का फल २२१ 傘傘傘傘傘傘傘傘都來來來來來來事奉部部來來來來來來來來來來來來來來來來來來來串聯 फिर यह सुयोग मिलना बड़ा कठिन है। अतः सैकड़ों जन्मों में भी दुर्लभ सम्यक्त्व को प्राप्त करके मनुष्य को क्षणभर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। . २. वृक्ष का दृष्टान्त - जैसे वृक्ष सर्दी, गर्मी, कम्प, शाखा छेदन आदि उपद्रवों को सहन करता हुआ भी कर्म परवश होने से अपने स्थान को नहीं छोड़ सकता है इसी प्रकार भारी कर्मा जीव धर्माचरण योग्य सामग्री के प्राप्त होने पर भी विषयों में आसक्त होकर नाना प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःख भोगते हुए करुण रुदन करते हैं फिर भी वे उन दुःखों के कारणभूत विषयों को एवं गृहवास को नहीं छोड़ते हैं। प्रथम उदाहरण एक बार सत्य का दर्शन कर (सम्यक्त्व पाकर) पुनः मोहमूढ अवसर-भ्रष्ट आत्मा का है जो पूर्वाध्यास या पूर्व संस्कारों के कारण संयम-पथ का दर्शन करके भी पुनः उससे विचलित हो जाती है। दूसरा उदाहरण अब. तक सत्यदर्शन से दूर अज्ञानग्रस्त गृहवास में आसक्त आत्मा का है। दोनों ही प्रकार के मोहमूढ पुरुष केवलिप्ररूपित धर्म का, आत्मकल्याण का अवसर पाने से वंचित रह जाते हैं और वे संसार के दुःखों से त्रस्त होते हैं। कृत कर्मों का फल (३३८) अह पास तेहिं कुलेहिं आयत्ताए जाया। कठिन शब्दार्थ - आयत्ताए - स्व कर्म भोगने के लिए। भावार्थ - अब उन कुलों में अपने कर्मों का फल भोगने के लिए उत्पन्न हुए पुरुषों को देखो। (३३६) गंडी अहवा कोढी, रायंसी अवमारियं। काणियं झिमियं चेव, कुणियं खुजियं तहा॥ .. उदरिं पास मूयं च, सूणियं च गिलासिणिं। वेवई पीढसप्पिं च, सिलिवयं महुमेहणिं॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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