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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 888888888888888888888
8 88 कठिन शब्दार्थ - तद्दिट्ठीए - आगम-तीर्थंकरों के दर्शन एवं आचार्य की दृष्टि - आज्ञानुसार चले, अभिभूय - अभिभूत - परीषह उपसर्गों (घातीकर्मों) को जीत कर, अदक्खूतत्त्व को देखा है, अणभिभूए - अनभिभूत, णिरालंबणयाए - निरालम्बनता (निराश्रयता)।
भावार्थ - साधक आचार्य की दृष्टि एवं आगम (तीर्थंकर के दर्शन) की दृष्टि में अपनी दृष्टि नियोजित करे, उनके द्वारा उपदेश की हुई मुक्ति में अपनी मुक्ति माने, आचार्य को आगे करके, उनके विचारों के अनुसार प्रवृत्त हो और उनके निकट ही निवास करे। जिसने परीषहउपसर्गों को (या घातीकर्मों को) जीत लिया है उसी ने तत्त्व को देखा है। जो परीषह. उपसर्गों द्वारा अभिभूत - पराजित नहीं होता वह निरालम्बनता पाने में समर्थ होता है। जो महान् होता है उसका मन (तीर्थंकर आज्ञा से, संयम से) बाहर नहीं होता है।
विवेचन - साधक को सर्वज्ञ भगवान् के बताए हुए मार्ग पर चलना चाहिये और आचार्य (गुरु) महाराज की आज्ञा का सदैव पालन करना चाहिये। जो पुरुष परीषह उपसर्गों द्वारा पराजित नहीं होता है वह पुरुष निरवलम्ब रहने में समर्थ होता है।
(३२४) पवाएणं पवायं जाणिजा, सहसम्मइयाए, परवागरणेणं अण्णेसिं वा अंतिए सोच्चा। ___ कठिन शब्दार्थ - पवाएणं - प्रवाद - तीर्थंकरों के वचन से, पवायं - प्रवाद - अन्य तीर्थिकों के वाद की, सहसम्मइयाए - सन्मति से, परवागरणेणं - तीर्थंकर आदि के उपदेश से।
भावार्थ - प्रवाद - सर्वज्ञ तीर्थंकरों के वचन - से, प्रवाद - अन्यतीर्थियों के मत को जाने। अपनी बुद्धि से (अथवा पूर्वजन्म की स्मृति से) तीर्थंकरों के उपदेश (आगम) से या आचार्यादि अन्य से सुन कर यथार्थ तत्त्व - वस्तु स्वरूप को जाने। . विवेचन - साधक तीर्थंकर भगवान् के वचनों के द्वारा अन्यतीर्थियों की मत की परीक्षा करे, वस्तु तत्त्व को समझे। अन्यतीर्थियों की अणिमा आदि सिद्धियों को देख कर भी तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा से बाहर मन नहीं लगावे। .
'पवाएणं पवायं जाणिज्जा' का अर्थ इस प्रकार भी किया जाता है - "आगम वाक्यों का अर्थ, परमार्थ गुरु परम्परा के अनुसार जानना चाहिये।' परम्परा से आया हुआ. अर्थ का भी बहुत वैशिष्ट्य होता है।
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