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________________ पांचवाँ अध्ययन - छठा उद्देशक - आज्ञा-पालन २१३ 888 88888888888 (३२५) णिद्देसं णाइवढेजा मेहावी सुपडिले हिय सव्वओ सव्वयाए सम्ममेव समभिजाणिया। कठिन शब्दार्थ - णिद्देसं - निर्देश - तीर्थंकरों की आज्ञा/उपदेश, णाइवढेजा - उल्लंघन नहीं करे, सव्वयाए - संपूर्ण रूप से - सामान्य और विशेष रूप से, सम्ममेव - सम्यक् प्रकार से, समभिजाणिया- जाने। भावार्थ - मेधावी (बुद्धिमान् पुरुष) तीर्थंकर आदि के उपदेश-आदेश का उल्लंघन (अतिक्रमण) नहीं करे। वह सब प्रकार से, भलीभांति विचार कर संपूर्ण रूप से - सामान्य और विशेष रूप से यथार्थता को जाने अर्थात् मिथ्यावाद का निराकरण करे। (३२६) - इह आरामं परिण्णाय अल्लीणगुत्तो परिव्वए, णिट्ठियट्टी वीरे आगमेणं सया परक्कमेजासि त्ति बेमि। कठिन शब्दार्थ - आरामं - संयम को, अल्लीणगुत्तो. - आत्मलीन जितेन्द्रिय, तीन गुप्तियों से गुप्त होकर, णिट्ठियट्ठी - मोक्षार्थी, आगमेणं - आगम से, परक्कमेजासि - पराक्रम करे।.. भावार्थ - इस मनुष्य लोक में संयम को स्वीकार करके आत्मलीन - जितेन्द्रिय और तीन गुप्तियों से गुप्त होकर विचरण करे। मोक्षार्थी, वीर यानी कर्मों को विदारण करने में समर्थ मुनि आगमानुसार संयम में पराक्रम करे - ऐसा मैं कहता हूं। विवेचन - बुद्धिमान् पुरुष अन्यतीर्थियों के मत को भलीभांति जान कर उसका त्याग करदे और तीर्थंकर भगवान् के मार्ग का अनुसरण करे। संयम अंगीकार कर अपनी इन्द्रियों और मन को वश में रखता हुआ मुनि कर्म रूपी शत्रुओं पर अपना पराक्रम दिखावे। (३२७) उहं सोया, अहे सोया, तिरियं सोया वियाहिया। एए सोया वियक्खाया, जेहिं संगति पासहा॥ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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