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पांचवाँ अध्ययन - छठा उद्देशक - आज्ञा-पालन
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पंचम अज्झयणं छडोइसो
पांचवें अध्ययन का छठा उद्देशक पांचवें अध्ययन के पांचवें उद्देशक में कहा गया है कि आचार्य को तालाब के समान होना चाहिये। अब छठे उद्देशक में यह बतलाया जाता हैं कि ऐसे आचार्य के सम्पर्क से ही कुमार्ग का त्याग और रागद्वेष की हानि होती है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
आज्ञा-पालन
(३२२) अणाणाए एगे सोवट्ठाणा आणाए एगे णिरुवट्ठाणा एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दसणं। . कठिन शब्दार्थ - अणाणाए - अनाज्ञा में, सोवट्ठाणा - सोपस्थानाः - उद्यमी, णिरुवट्ठाणा - अनुद्यमी - पुरुषार्थ नहीं करते हैं। ___ भावार्थ - कुछ साधक अनाज्ञा में - तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा से विरुद्ध उद्यमी होते हैं और कुछ साधक आज्ञा में अनुद्यमी होते हैं। यह अनाज्ञा में उद्यम और आज्ञा में अनुद्यम • तुम्हारे जीवन में न हो। यह तीर्थंकर भगवान् का दर्शन - उपदेश - अभिप्राय हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में तीर्थंकर भगवंतों की आज्ञा-अनाज्ञा के अनुसार चलने वाले साधकों का वर्णन किया गया है। दो प्रकार के साधक होते हैं - १. अनाज्ञा में सोपस्थान - तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध उद्यम - पुरुषार्थ करने वाले। २. आज्ञा में निरुपस्थान - तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा में उद्यत नहीं रहने वाले, उद्यम (पुरुषार्थ) नहीं करने वाले। दोनों ही प्रकार के साधकों को ठीक नहीं कहा गया है। क्योंकि कुमार्ग का आचरण और सन्मार्ग का अनाचरण दोनों ही त्याज्य है। तीर्थंकरों का दर्शन है - अनाज्ञा में निरुद्यम और आज्ञा में उद्यम।
(३२३) तद्दिट्टीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे, अभिभूय अदक्खू, अणभिभूए पभू णिरालंबणयाए, जे महं अबहिं मणे।
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