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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 密密等多部都密密密部本部參參參參业部部本部部带脚本部事本來每部都染整事奉非事事部参参參非事事奉參
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में “आयतुले पयासु" प्रत्येक प्राणी को अपनी आत्मा के तुल्य समझते हुए हिंसा से निवृत्त होने का उपदेश दिया है।
आत्म-लक्षण
(३२१) जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया, जेण वियाणइ से आया, तं पडुच्च पडिसंखाए, एस आयावाई समियाए परियाए वियाहिए त्ति बेमि।
___॥ पंचम अज्झयणं पंचमोद्देसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - आया - आत्मा, विण्णाया - विज्ञाता, पडुच्च - कारण, पडिसंखाएप्रतिसंख्यायते - आत्मा का ज्ञान होता है, आयावाई - आत्मवादी।
भावार्थ - जो आत्मा है वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वह आत्मा है। जिससे (मति आदि ज्ञान से) जानता है वह आत्मा है। उस ज्ञान परिणाम से आत्मा ज्ञानवान् कहा जाता है। जो ज्ञान से अभिन्न आत्मा को मानता है वह आत्मवादी है। वह सम्यक् भाव से दीक्षा पर्याय वाला कहा गया है। ऐसा मैं कहता हूं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में द्रव्य और गुण दोनों अपेक्षाओं से आत्मा का लक्षण बताया गया है।
ज्ञान आत्मरूपी द्रव्य का पर्याय है इसलिए आगमकार फरमाते हैं कि “जे आया से विण्णाया" अर्थात् नित्य और उपयोग रूप जो आत्मा है वही विज्ञाता है अर्थात् वस्तुओं को जानने वाला भी वही है किंतु उस आत्मा से भिन्न ज्ञान पदार्थ का ज्ञाता नहीं है और जो पदार्थों को जानने वाला उपयोग है, आत्मा भी वही है क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग है और उपयोग ज्ञान रूप है। इस प्रकार ज्ञान और आत्मा का अभेद सम्बन्ध है। यह आत्मा ज्ञान परिणाम के कारण मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और केवलज्ञानी आदि कहा जाता है। इस प्रकार जो पुरुष ज्ञान और आत्मा को अभिन्न जानता है, वही आत्मवादी है। अतएव उसका संयमानुष्ठान सम्यक् है।
॥ इति पांचवें अध्ययन का पांचवां उद्देशक समाप्त॥
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