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पांचवाँ अध्ययन - पांचवां उद्देशक - हिंसा से निवृत्ति का उपदेश २०६ 密密部部等部密密邵****密密密密密密密密密密密密密密密密密事密密參參參參參部部部部整部密密密密 चाहिये कि वह अपनी आत्मा को असंयम में प्रवृत्त न होने दे और संयम में किञ्चिन्मात्र भी शिथिलता न करते हुए एक क्षण भर भी प्रमाद न करे। ___ हिंसा से निवृत्ति का उपदेश
(३२०) तुमंसि णाम सच्चेव, जं हंतव्वंति मण्णसि, तुमंसि णाम सच्चेव, जं अजावेयव्वंति मण्णसि, तुमंसि णाम सच्चेव, जं परियावेयव्वंति मण्णसि, एवं जं परिघेत्तव्वंति मण्णसि, जं उद्दवेयव्वंति मण्णसि। ___ अंजू चेयं-पडिबुद्धजीवी तम्हा ण हंता, ण विघायए, अणुसंवेयणमप्पाणेणं जं हंतव्वं णाभिपत्थए।
कठिन शब्दार्थ - तुमंसि णाम - तुम ही हो, सच्चेव - तंचेव - वह, हंतव्वंति - हनन योग्य, मण्णसि - मानते हो, अजावेयव्बंति - आज्ञा में रखने योग्य, परितावेयव्वंतिपरिताप देने योग्य, परिघेत्तव्वंति - परिग्रह रूप में रखने - दास बनाने योग्य, उद्दवेयव्वंति - मारने योग्य, पडिबुद्धजीवी - प्रतिबुद्ध जीवी - ज्ञान युक्त (विवेक पूर्वक) जीवन व्यतीत करने वाला, अणुसंवेयणं - अनुसंवेदन - कृत कर्म (हिंसा) का दुःख रूप फल वेदन, णाभिपत्थए - इच्छा मत करो। . भावार्थ - जिसे तुम हनन योग्य मानते हो, वह तुम ही हो। जिसे तुम आज्ञा में रखने योग्य मानते हो, वह तुम ही हो। जिसे तुम परिताप देने योग्य मानते हो, वह तुम ही हो। जिसे तुम दास बनाने - ग्रहण करने योग्य मानते हो, वह तुम ही हो। जिसे तुम मारने योग्य, मानते हो, वह तुम ही हो।
ज्ञानी पुरुष ऋजु (सरल स्वभाव वाला) होता है। वह विवेकपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करता है इसलिये वह स्वयं किसी प्राणी का घात न करे और न दूसरों से घात करवाए तथा घात करने वाली का अनुमोदन भी न करे क्योंकि कृत कर्म के अनुरूप स्वयं को ही उसका फल भोगना पड़ता है अतः किसी प्राणी को मारने (हनन करने) की इच्छा मत करो।
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