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________________ २०८ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 那种帮种密密密密密够帮帮争密密部本部參參參參參參够帮争参帮帮密密密密事密密密密部本部举參參參參參參帮 विवेचन - आगमकार फरमाते हैं कि जिस पुरुष की श्रद्धा सम्यक् है और उसमें किसी प्रकार की शंका नहीं रखता हुआ उसको वैसा ही सम्यक् होने की भावना रखता है वह वस्तुं सम्यक् हो या असम्यक् हो उसकी उसमें सम्यक् भावना होने के कारण उसके लिए वह सम्यक् ही है अर्थात् उसको सम्यक् रूप से ही परिणमती है। जो पुरुष किसी वस्तु को असम्यक् मानता है वह वस्तु सम्यक् हो या असम्यक् हो उसके लिए वह असम्यक् ही है अर्थात् असम्यक् रूप से ही परिणमती है क्योंकि उसमें उसकी असम्यक् भावना - बुद्धि है। ... (३१८) ... उवेहमाणो अणुवेहमाणं बूया-“उवेहाहि समियाए इच्चेवं तत्थ संधी झोसिओ भवई"। कठिन शब्दार्थ- उवेहमाणो - उत्प्रेक्षा - सत् असत् का विचार करने वाला, अणुवेहमाणंउत्प्रेक्षा नहीं करने वाले से, बूया - कहे, संधी - कर्म संतति रूप संधि, झोसिओ - क्षपितनष्ट होती है। ___भावार्थ - उत्प्रेक्षा करने वाला (सम्यक् प्रकार से पर्यालोचन करने वाला) उत्प्रेक्षा नहीं करने वाले से कहे कि सम्यक् (सम) भाव से उत्प्रेक्षा करो, इस प्रकार सम्यक् उत्प्रेक्षा करने से कर्मसंतति रूप संधि नष्ट होती है। (३१६) ___ से उट्टियस्स ठियस्स गई समणुपासह, इत्थवि बालभावे अप्पाणं णो उवदंसेज्जा। कठिन शब्दार्थ - उट्ठियस्स - उत्थित - संयम में जागृत - पुरुषार्थवान् की, ठिइयस्सस्थित की, णो उवदंसेज्जा - प्रदर्शित न करे। भावार्थ - उस संयम में उत्थित और असंयम में स्थित पुरुष की गति को देखो। इस बाल भाव रूप असंयम में अपने आपको (अपनी आत्मा) को प्रदर्शित मत करो। विवेचन - संयम में उद्यम करने वाले पुरुष की श्रेष्ठ गति को और संयम में शिथिलता करने वाले तथा असंयम प्रवृत्ति करने वाले पुरुष की बुरी गति को देखकर विवेकी पुरुष को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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