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(२६८).
इति कम्मं परिण्णाय सव्वसो से ण हिंसइ संजमइ णो पगब्भ,
पत्तेयं सायं ।
आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध)
कठिन शब्दार्थ - परिण्णाय
पगब्भइ - धृष्टता नहीं करता है।
भावार्थ - इस प्रकार कर्म और उसके कारण को सम्यक् प्रकार से जान कर वह मुनि सब प्रकार से जीव हिंसा नहीं करता है। संयम का पालन करता है और असंयम में धृष्टता नहीं करता है। प्रत्येक प्राणियों के सुख दुःख को अलग अलग देखता हुआ किसी की भी हिंसा न करे ।
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वण्णाएसी णारभे कंचणं सव्वलोए, एगप्पमुहे विदिसप्पइण्णे णिव्विण्णचारी अरए पयासु ।
कठिन शब्दार्थ - वण्णाएसी - यश अथवा रूप का अभिलाषी, एगप्पमुहे - एक मोक्ष की ओर मुख - दृष्टि करके, विदिसप्पइण्णे - विपरीत दिशाओं- संयम विरोधी मार्गों को पार करके, णिव्विण्णचारी - विरक्त होकर, अरए अरत, पयासु - स्त्रियों में । भावार्थ यश का अथवा रूप का अभिलाषी होकर मुनि समस्त लोक में किसी भी प्रकार का आरंभ (सावद्य कार्य - हिंसा) न करे। एक मात्र मोक्ष मार्ग में दृष्टि रखता हुआ विपरीत दिशाओं को (संयम विरोधी मार्गों को) तेजी से पार कर जाए। वैराग्ययुक्त होकर आचरण करने वाला साधक स्त्रियों के प्रति अरत ( अनासक्त) रहे।
(३००)
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जान कर, संजमइ - संयम का पालन करता है, णो
से वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावकम्मं तं णो अण्णेसी ।
माण
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कठिन शब्दार्थ - वसुमं धनी संयम रूप धन का स्वामी, सव्व समण्णागयपण्णाणेणं
सर्व समन्वागत प्रज्ञा से विशिष्ट ज्ञान से, अण्णेसी अन्वेषण करे।
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