SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवाँ अध्ययन - तृतीय उद्देशक - आंतरिक युद्ध १६३ Re@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ @@@ @@@ @ @@@@@ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने आंतरिक युद्ध की प्रेरणा दी है। हमें बाह्य शत्रुओं के साथ युद्ध नहीं करना है। शरीर और कर्मों के साथ आंतरिक युद्ध करना है। औदारिक शरीर जो इन्द्रियों और मन के शस्त्र लिए हुए है तथा कर्म शरीर - जिसके पास काम क्रोध मद लोभ आदि सेना है। इन दोनों के साथ आंतरिक युद्ध करके कर्मों को क्षीण कर देना ही साधक का लक्ष्य होना चाहिये। विषय कषाय में प्रवृत्त इन्द्रियों और मन के साथ युद्ध करके उन्हें जब तक वश में नहीं किया जाता - जीत नहीं लिया जाता तब तक आत्म-कल्याण नहीं हो सकता है। इसीलिये ज्ञानियों ने इस आंतरिक युद्ध (भाव युद्ध) के लिये योग्य साधन-सामग्री प्राप्त होना दुर्लभ बताया है। (२६५) ___ जहित्थ कुसलेहिं परिण्णाविवेगे भासिए, चुए हु बाले गन्भाइसु रजइ। कठिन शब्दार्थ - परिण्णा विवेगे - परिज्ञा और विवेक, चुए - च्युत, गब्भाइसु - गर्भ आदि में, रज्जइ - फंस जाता है। - भावार्थ - कुशल पुरुषों (तीर्थंकरों) ने इस जगत् में भाव युद्ध का जो परिज्ञा विवेक (ज्ञान) बताया है। साधक को तदनुसार मानना और आचरण करना चाहिये। धर्म से च्युत अज्ञानी जीव गर्भ आदि में फंस जाता है। ___(२६६) अस्सिं चेयं पव्वुच्चइ, रूवंसि वा छणंसि वा। भावार्थ - इस आर्हत् प्रवचन में यह कहा जाता है कि रूप आदि विषयों में तथा हिंसा आदि में आसक्त होने वाला जीव धर्म से पतित (च्युत) हो जाता है। (२९७) से हु एगे संविद्धपहे मुणी अण्णहा लोगमुवेहमाणे। कठिन शब्दार्थ -. संविद्धपहे - मोक्ष मार्ग पर चलने वाला, अण्णहा - अन्यथा, उवेहमाणे - उत्प्रेक्षण - गहराई से अनुप्रेक्षण करता हुआ। . भावार्थ - निश्चय से वह एक मुनि ही मोक्ष मार्ग पर चलने वाला है जो विषय कषायादि के वशीभूत एवं हिंसादि प्रवृत्त लोक को देख कर उसकी उपेक्षा करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy