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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 參參參參參參參參參參參參參參參參參參密密部部參參參參參參參參參參參參參參參邵邵华华华
विवेचन - प्रस्तुत दो सूत्रों में साधक के लिए धर्म में स्थिरता हेतु आठ मूल सूत्र बताएं हैं जो इस प्रकार हैं -
१. आज्ञाकांक्षी - आज्ञा के दो अर्थ हैं - १. तीर्थंकरों का उपदेश और २. तीर्थंकर प्रतिपादित आगम। साधक आज्ञाकांक्षी (आज्ञा रुचि) वाला हो। .
२. पण्डित - वह पण्डित कहलाता है जो १. सद् असद् विवेकी हो २. इन्द्रियों एवं मन से पराजित न हो ३. ज्ञान रूपी अग्नि से कर्मों को जलाने वाला हो ४. क्षण को पहचानने वाला हो, उसे ज्ञानियों ने पण्डित कहा है।
३. स्नेह रहित हो - स्नेह-रागद्वेष (आसक्ति) रहित हो। .
४. पूर्व रात्रि अपर रात्रि में यत्नवान् - पूर्व रात्रि - रात्रि के प्रथम प्रहर में और अपर रात्रि-रात्रि के पिछले प्रहर में स्वाध्याय, ध्यान, ज्ञानचर्चा या आत्मचिंतन करते हुए अप्रमत्त रहे।
५. शीलसंप्रेक्षा - चार प्रकार के शील कहे गये हैं - १. महाव्रतों की साधना २. तीन गुप्तियां ३. पंचेन्द्रिय दमन ४. चार कषायों का निग्रह - इनका सतत निरीक्षण करना शील संप्रेक्षा है।
६. श्रवण - लोक में सारभूत परमतत्त्व - ज्ञान दर्शन चारित्र रूप मोक्ष मार्ग का श्रवण करना। ७. अकाम (काम-रहित) - इच्छा - काम और मदन - काम से रहित होना। ८. अझंझ - माया या लोभेच्छा से रहित होना।
उपर्युक्त आठ उपायों के सहारे साधक सतत संयम पालन में अप्रमत्त रहता हुआ आगे बढ़ता रहे।
आंतरिक युद्ध
(२९४) इमेणं चेव जुज्झाहि, किं ते जुझेण बज्झओ? जुद्धारिहं खलु दुल्लहं।
कठिन शब्दार्थ - जुज्झाहि - युद्ध कर, बज्झाओ - बाहर के, जुज्झेण - युद्ध से, जुद्धारिहं - भाव युद्ध के योग्य।
भावार्थ - इस कर्म शरीर (कषायात्मा) के साथ युद्ध कर, बाहर के युद्ध से तुझे क्या प्रयोजन है? भाव युद्ध के योग्य औदारिक शरीर आदि साधन प्राप्त करना निश्चय ही दुर्लभ है।
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