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________________ पांचवाँ अध्ययन द्वितीय उद्देशक - परिग्रह त्याग का उपदेश १८७ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ॐ ॐ ॐ कठिन शब्दार्थ - संगे संग को, अवियाणओ सम्यक् प्रकार से प्रतिबद्ध, सूवणीयंति - ज्ञानादि प्राप्त है, परमचक्खू ज्ञान एवं मोक्ष में दृष्टि रखते हुए, विप्परिक्कमा - पराक्रम करे । भावार्थ - जो पुरुष इस संग (परिग्रह जनित आसक्तियों) को नहीं जानता है वह महाभय को पाता है अर्थात् जो परिग्रह का त्याग कर देता है उसको भय नहीं होता है। परिग्रह का त्याग करने वाला पुरुष सम्यक् प्रकार से प्रतिबुद्ध और ज्ञानादि को प्राप्त होता है यह जानकर हे परम चक्षुष्मान् पुरुष! (ज्ञानरूप चक्षु रखने वाले, मोक्ष में दृष्टि रखने वाला पुरुष ) संयम पालन में पराक्रम (पुरुषार्थ) कर। जो परिग्रह से रहित हैं, ज्ञान एवं मोक्ष में दृष्टि रखने वाले हैं उन्हीं में ब्रह्मचर्य होता है - ऐसा मैं कहता हूँ । विवेचन प्रस्तुत सूत्रों में परिग्रह की भयंकरता बताते हुए उसके त्याग की प्रेरणा दी गयी है। परिग्रह चाहे थोड़ा सा भी हो, सूक्ष्म हो, सचित्त ( शिष्य, शिष्या, भक्त या भक्ता) का हो या अचित्त (शास्त्र, पुस्तक, वस्त्र, पात्र, क्षेत्र, प्रसिद्धि आदि) का हो, अल्प मूल्यवान् हो या बहुमूल्य, थोड़े से वजन का हो या भारी हो, यदि साधक की ममता, मूर्च्छा या आसक्ति इनमें से किसी पदार्थ पर है तो वह महाव्रत धारी होते हुए भी गृहस्थ के समान ही है। वस्तुओं में आसक्ति होने के कारण उनकी सुरक्षा का भय भी बना रहता है इसीलिए परिग्रह को महाभय रूप कहा है। जो पुरुष परिग्रह का त्याग कर देता है वह निर्भय होता है। और उसका ज्ञान उत्तम होता है अतः विवेकी पुरुषों को परिग्रह का त्याग कर देना चाहिये । "एएस चेव बंभधेरं" का आशय यह है कि जिसकी शरीर और वस्तुओं के प्रति मूर्च्छा - ममता होगी वह इन्द्रिय संयम रूप ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकेगा । अहिंसादि आवरण रूप ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं कर सकेगा, न ही गुरु कुलवास रूप ब्रह्मचर्य में रह पाएगा और न ही वह आत्मा-परमात्मा (ब्रह्म) में विचरण कर पाएगा। इसीलिए कहा गया है कि परिग्रह से विरत मनुष्यों में ही सच्चे अर्थ में ब्रह्मचर्य रह सकेगा । (२८५) - Jain Education International - - नहीं जानता हुआ, सुपडिबद्धं परम चक्षुष्मान् से सुयं च मे, अज्झत्थयं च मे, बंधपमुक्खो अज्झत्थेव । कठिन शब्दार्थ - सुयं सुना है, अज्झत्थयं अध्यात्म आत्मा में अनुभव (स्थित), बंधपमुक्खो - बंध से मुक्ति । J For Personal & Private Use Only - - www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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