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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 88888888888888888888888888888888888888888888880
भावार्थ - मैंने सुना है और मेरे अध्यात्म (आत्मा) में भी स्थित है यानी मैंने अनुभव किया है कि बंध से छुटकारा अध्यात्म अर्थात् ब्रह्मचर्य (परिग्रहत्याग) से ही होता है।
(२८६) इत्थ विरए अणागारे दीहरायं तितिक्खए।
कठिन शब्दार्थ - विरए - विरत, दीहरायं - दीर्घ रात्रि - जीवन पर्यन्त, तितिक्खए - समभाव पूर्वक सहन करे। भावार्थ - अतः परिग्रह से विरत अनगार जीवन पर्यंत परीषहों को समभाव से सहन करे।
(२८७) पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए।
भावार्थ - जो प्रमत्त (प्रमादी) है उन्हें निर्ग्रन्थ धर्म से बाहर देख (समझ)। अतः अप्रमत्त होकर संयम में विचरण कर।
(२५८) । एयं मोणं सम्मं अणुवासिजासि त्ति बेमि।
॥ पंचमं अज्झयणं बीओहेसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - एयं - इस, मोणं - मौन-मुनि धर्म का सम्यक् प्रकार से, अणुवासिजासि - अनुपालन कर।
भावार्थ - इस मुनिधर्म का सम्यक् अनुपालन कर - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - जो परिग्रह से रहित नहीं है तथा विषय कषायों में आसक्त है, वह निर्ग्रन्थ धर्म से बहिर्भूत है। इस बात को जान कर विवेकी पुरुष प्रमाद का त्याग करे और अप्रमत्त होकर शुद्ध संयम का पालन करें।
॥ इति पांचवें अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त||
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