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________________ आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध ) विवेचन जो साधक रत्नत्रयी की साधना में संलग्न है, शरीर के ममत्व एवं हिंसादि आस्रवों से निवृत्त है वह नरक, तिर्यंच आदि दुर्गति में नहीं जाता है - ऐसा सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया है। परिग्रह की भयंकरता (२८२) आवंती केयावंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा, एएसु चेव परिग्गहावंती । कठिन शब्दार्थ- परिग्गहावंती परिग्रह वाले हैं, अप्पं अल्प (थोड़ा), बहु बहुत, अणुं - अणु, थूलं स्थूल, चित्तमंतं - चेतना वाला, अचित्तमंतं - अचेतनावान् चेतना से रहित । भावार्थ इस लोक में जितने भी परिग्रहवान् परिग्रह वाले हैं वे अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त वस्तुओं का परिग्रहण (संग्रह) करते हैं। परिग्रह त्याग का उपदेश १८६ - - Jain Education International - (२८३) एतदेवेगेसिं महब्भयं भवइ, लोगवित्तं च णं उवेहाए । कठिन शब्दार्थ - महब्भयं महान् भयदायक, लोगवित्तं लोगों के वित्त-धन या लोकवृत्त (संज्ञाओं) को उवेहाए - उत्प्रेक्ष्य ज्ञ परिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग दे, उपेक्षा कर दे। भावार्थ - इन वस्तुओं में परिग्रह - मूर्च्छा ममत्व रखने के कारण ही यह परिग्रह उनके लिए महान् भय का कारण होता है। असंयमी पुरुषों के वित्त (धन) को या परिग्रह आदि . संज्ञाओं का विचार कर उनका परित्याग कर दे। (२८४) - एए संगे अवियाणओ से सुपडिबद्धं सूवणीयंति णच्चा, पुरिसा! परम- चक्खू विप्परक्कमा, एएस चेव बंभचेरं त्ति बेमि । For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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