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पांचवाँ अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - सम्यकू प्रव्रज्या
१८५ 888888888888888888888888888888888 दुःखों को मुझे समभाव से सहन करना है क्योंकि कृत कर्मों को मुझे ही क्षय करना है। इनका फल भोगे बिना छुटकारा होने वाला नहीं है।
एक आचार्य ने ठीक ही कहा है - स्वकृत परिणतानां दुर्नयानां विपाकः। पुनरपि सहनीयोऽत्र ते निर्गुणस्य। स्वयमनुभवताऽसौ दुःख मोक्षाय सद्यो। भव शत गति हेतु जयतेऽनिच्छतस्ते॥
- खेद रहित होकर स्वकृत-कर्मों के बंध का विपाक अभी नहीं सहन करोगे तो फिर (कभी न कभी) सहन करना (भोगना) ही पड़ेगा। यदि वह कर्म फल स्वयं स्वेच्छा से भोग लोगे तो शीघ्र ही दुःख से छुटकारा हो जायगा। यदि अनिच्छा से भोगोगे तो वह सौ भवों (जन्मों) में गमन का कारण हो जाएगा।
यह सोच कर प्राप्त अवसर का लाभ उठायें और अप्रमत्त रूप से साधना करें।
यह शरीर अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है। इसे सफल बनाने के लिए शुभ अनुष्ठान करना ही विवेकी पुरुषों का कर्तव्य है। अतएव शास्त्रकार फरमाते हैं कि 'पांच इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर की जो प्राप्ति हुई है यह धर्माचरण करने का बड़ा भारी अवसर है। ऐसे सुअवसर को पाकर धर्माचरण करो और धर्माचरण करने में एक क्षण भर भी प्रमाद मत करो।
(२८१) समुप्पेहमाणस्स इक्काययणरयस्स इह विप्पमुक्कस्स णत्थि मग्गे विरयस्स त्ति बेमि।
कठिन शब्दार्थ - समुप्पेहमाणस्स - सम्यक् प्रकार से अनुप्रेक्षा करने वाले को, इक्काययणरयस्स - एकायत नरतस्य - आत्मरमण रूप एक आयतन में लीन, ज्ञान दर्शन और चारित्र में रत, विप्पमुक्कस्स - शरीर के ममत्व से रहित, विरयस्स - विरत के लिए। . भावार्थ - 'यह शरीर अनित्य है' - इस प्रकार सम्यक् अनुप्रेक्षा करने वाला, ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय का आराधक शरीर पर ममत्व नहीं रखने वाला हिंसादि आस्रवों से विरक्त (निवृत्त) साधक के लिए नरक, तिर्यंच आदि गति में जाने का मार्ग नहीं है - ऐसा मैं कहता हूँ। .
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