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________________ १८४ आचाराग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 8888888888888888888888888888888888888888 (२७६) जे असत्ता पावेहिं कम्मेहिं उदाहु ते आयंका फुसंति इइ उदाहु धीरे ते फासे पुट्ठो अहियासए। कठिन शब्दार्थ - असत्ता - आसक्त नहीं है - अनासक्त, आयंका - आतंक - रोग, अहियासए - सहन करे। भावार्थ - जो पुरुष पापकर्मों में आसक्त नहीं है यदि कदाचित् उनको रोग स्पर्श करें तो धीर पुरुषों (तीर्थंकरों) ने ऐसा कहा है कि वे उन रोगों के स्पर्श करने पर उस कष्ट को समभाव । पूर्वक सहन करे। (२८०) से पुव्वं पेयं, पच्छापेयं भेउरधम्मं विद्धंसणधम्म अधुवं अणिइयं असासयं चयावचइयं विप्परिणामधम्म, पासह एवं रूवसंधिं। ____ कठिन शब्दार्थ - पुव्वं पेयं - पहले मैंने ही भोगा है, पच्छापेयं - बाद में भी मुझे ही भोगना पड़ेगा, भेउरधम्म - भिदुरधर्मः - छिन्न-भिन्न (भेदन) होने वाला, विद्धंसणधम्म - विध्वंसनधर्म - विध्वंस होने वाला, चयावचइयं - चयापचयिक - चय उपचय वाला, विप्परिणामधम्म - विपरिणामधर्मः - विविध परिणाम (परिवर्तन) वाला, रूवसंधि - रूप संधि को - देह स्वरूप और अमूल्य अवसर को। ____ भावार्थ - वह रोगग्रस्त मुनि यह सोचे कि मैंने पहले भी रोगादि दुःखों को सहन किया था और बाद में भी मुझे ही भोगना पड़ेगा। यह औदारिक शरीर छिन्न-भिन्न होने वाला है, विध्वंस होने वाला है। यह अध्रुव है, अनित्य है, अशाश्वत है, यह चय-अपचय (घट-बढ़) वाला है और विपरिणाम - विविध परिणाम वाला है। अतः इस रूप संधि - देह के स्वरूप को देखो, अमूल्य अवसर को देखो।। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि परीषह उपसर्ग और रोगादि के आने पर साधक उन्हें अनाकुल और धैर्यवान् होकर समभाव से सहन करे और सोचे कि इस प्रिय लगने वाले शरीर को पहले या पीछे एक न एक दिन अवश्य छोड़ना पड़ेगा। मेरे द्वारा पूर्व में किये हुए असाता वेदनीय कर्मों के उदय से ही ये दुःख (परीषह, उपसर्ग रोगादि) आये हैं और इन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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