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पांचवाँ अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - सम्यक् प्रव्रज्या
१८३ 888 8888888888888@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ जल कमलवत्-निर्लेप रहते हैं। शरीर का निर्वाह भी वे निरवद्य विधि से करते हैं - यही अनारंभजीवी साधक का लक्षण है। वह अप्रमत्त जीवन जीने वाला होता है।
अप्रमाद का मार्ग
(२७७) एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, उट्ठिए णो पमायए, जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं।
भावार्थ - यह अप्रमाद का मार्ग आर्य पुरुषों-तीर्थंकरों ने कहा है, सभी प्राणियों के सुख दुःख को अलग-अलग जान कर उत्थित (धर्माचरण के लिए तत्पर) पुरुष प्रमाद न करे। .
सम्यक् प्रव्रज्या
(२७८) पुढो छंदा इह माणवा, पुढो दुक्खं पवेइयं से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्ठो फासे विप्पणोल्लए। एस समिया परियाए वियाहिए।
कठिन शब्दार्थ- छंदा - अभिप्राय, अविहिंसमाणे - हिंसा न करता हुआ, अणवयमाणेझूठ नहीं बोलता हुआ, विप्पणोल्लए - समभाव से सहन करे, समियाए - सम्यक्, शमिता (समता.का), परियाए - पर्याय वाला।
- भावार्थ - इस जगत् में मनुष्यों के भिन्न-भिन्न अभिप्राय (अध्यवसाय या संकल्प) होते हैं इसलिए उनके दुःख भी भिन्न-भिन्न कहे गये हैं। वह अनारम्भजीवी साधक किसी भी जीव की हिंसा न करता हुआ, असत्य नहीं बोलता हुआ, शीत उष्ण आदि परीषहों का स्पर्श पाकर अर्थात् परीषह उपसर्गों के आने पर उन्हें समभाव से सहन करे। ऐसा समभावी साधक सम्यक् पर्याय वाला (उत्तम चारित्र संपन्न) कहा गया है।
विवेचन - प्रत्येक प्राणी के सुख दुःख और अभिप्राय भिन्न-भिन्न हैं यह जानने वाला और अनारंभजीवी - बिना आरंभ के जीविका करने वाला साधक प्राणियों की हिंसा न करता हुआ, मिथ्या भाषण तथा अदत्तादान आदि का त्याग करता हुआ पांच महाव्रतों का सम्यक् पालन करे और जो परीषह उपसर्ग आवे उन्हें समभाव पूर्वक सहन करे। जो परीषह उपसर्गों को समभाव से सहन करता है, वही सम्यक् प्रव्रज्या वाला है।
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