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________________ १८२ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 8888888888888888888@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ पंचमं अज्झयणं बीओदेसो पांचवें अध्ययन का द्धितीय उद्देशक प्रथम उद्देशक में जिनाज्ञा से विरुद्ध अकेला विचरने वाला मुनि नहीं है, यह बतलाया गया है। जिस तरह मुनि भाव प्राप्त किया जाता है' वह इस उद्देशक में बतलाया जाता है - अनारंभजीवी (२७५) आवंती केयावंती लोयंसी अणारंभजीविणो एएसु चेव अणारंभ जीविणो। कठिन शब्दार्थ - अणारंभजीविणो - अनारंभजीवी - आरंभ से रहित आजीविका करने वाले - आरंभ के त्यागी। .. ___ भावार्थ - इस लोक में जितने भी अनारंभजीवी हैं वे गृहस्थों के घर से निर्दोष आहारादि लेकर अनारंभ से ही अपने शरीर का निर्वाह करते हुए संयम जीवन से जीते हैं। . (२७६) एत्थोवरए तं झोसमाणे 'अयं संधीति' अदक्खू, जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति अण्णेसी। ___कठिन शब्दार्थ - एत्थोवरए - सावध आरम्भ से निवृत्त, झोसमाणे - क्षय करता हुआ, अण्णेसी - अन्वेषण करता है, विग्गहस्स - शरीर का। भावार्थ - इस सावद्य-आरम्भ से निवृत्त कर्मों का क्षय करता हुआ पुरुष मुनि भाव को प्राप्त होता है। यह संधि - उत्तम अवसर है - ऐसा देख कर क्षण भर भी प्रमाद न करे। इस औदारिक शरीर का यह वर्तमान क्षण है, इस प्रकार जो अन्वेषण करता है यानी प्रत्येक क्षण का जो महत्त्व समझता है, वह प्रमाद नहीं करता है। विवेचन - असंयत प्राणियों का जीवन आरम्भ से युक्त होता है किन्तु मुनि का जीवन अनारंभी - आरंभ से रहित होता है। वह किसी भी परिस्थिति में आरम्भ - हिंसा का सेवन नहीं करता। वह तीन करण तीन योग से हिंसा का त्यागी होता है। संसार में रहते हुए भी वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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