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________________ पांचवाँ अध्ययन - a e a age age age age e e e अति स्वार्थ हो, दूसरों से पूजा-प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि पाने का लोभ हो, कषायों की उत्तेजना हो, दूसरों की सेवा नहीं करनी पड़े, दूसरों को अपने किसी दोष या अनाचार का पता न लग जाए-इन कारणों से एकाकी विचरना अप्रशस्त एकचर्या है । प्रस्तुत सूत्र में अप्रशस्त एकचर्या के दोषों का ही वर्णन किया गया है, भाव से प्रशस्त एकचर्या तीर्थंकरों आदि की होती है। प्रथम उद्देश अप्रशस्त. (एकाकी) चर्या के दोष १८१ e e e e e e e e e e e e e e e e e e e e e e e e e e e e उट्ठियवायं ( उत्थितवाद) से एकाकी विचरण करने वालों की मिथ्या उक्तियों का खंडन किया गया है। वे कहते हैं कि "मैं इसलिये एकाकी विचरण करता हूँ कि अन्य साधु शिथिलाचारी है, मैं उग्र आचारी हूँ अतः मैं उनके साथ कैसे रह सकता हूँ आदि" । सूत्रकार का कथन है कि इस प्रकार की आत्मप्रशंसा मात्र उन का वाक्जाल है। इस 'उत्थितवाद' को स्वयं को संयम में उत्थित बताने की मायापूर्ण उक्ति मात्र समझना चाहिये । - (२७४) अट्टा पया माणव! कम्मकोविया जे अणुवरया अविज्जाए पलिमुक्खमाहु आवट्टमेव अणुपरियहंति त्ति बेमि । ॥ पंचम अज्झयणं पढमोद्देसो समत्तो ॥ Jain Education International प्रजा कठिन शब्दार्थ अट्टा - विषय कषायों में आर्त्त दुःखी, पया कम्मकोविया - कर्म कोविद कर्म पंडित कर्म बांधने में निपुण, अणुवरया पाप से अनिवृत्त, अविज्जाए - अविद्या से, पलिमोक्खं मोक्ष, आहु . आवट्टमेव संसार रूपी चक्र के आवर्त में ही, अणुपरियद्वंति - भ्रमण करते रहते हैं। भावार्थ - हे मानव! जो प्राणी विषय कषायों से आर्त-दुःखी है, कर्म बंधन करने में चतुर है, जो आस्रवों से विरत नहीं हैं, तो अविद्यां से मोक्ष प्राप्त होना बतलाते हैं वे जन्म, मरणांदि रूप संसार के आवर्त (भंवरजाल) में ही चक्कर काटते रहते हैं ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन मोक्ष से विपरीत संसार है। अविद्या संसार का कारण है अतः जो लोग . अविद्या को विद्या मान कर मोक्ष का कारण बताते हैं वे संसार के भंवरजाल में बार-बार पर्यटन करते रहते हैं, उनके संसार का अन्त नहीं होता है। ॥ इति पांचवें अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ - - - For Personal & Private Use Only - - - · सब प्राणी, - अनुपरत - बतलाते हैं, www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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