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चौथा अध्ययन - तृतीय उद्देशक
१६३ 鄉鄉事帶來哪哪哪哪哪哪哪哪哪哪哪哪郵幣參參參參參參參參邵邵邵邵邵邵邵邵邵邵邵华型 भिन्न-भिन्न मतों की स्थापना करते हैं, वे कहते हैं कि हमारे आगमों को बनाने वाले आचार्यों ने दिव्य ज्ञान के द्वारा इस धर्म को देखा है और युक्तिपूर्वक विचार एवं मनन किया है और अच्छी तरह जाना है कि धर्म के लिए जो हिंसा की जाती है उसमें कोई दोष नहीं है, उससे कोई पाप बन्ध नहीं होता है। __शास्त्रकार फरमाते हैं कि - हे अन्यतीर्थियो! तुम्हारा उपरोक्त वचन हिंसा का समर्थक होने के कारण पापानुबन्धी और अनार्य प्रणीत है। हमारा धर्मानुकूल सिद्धान्त यह है कि - किसी भी प्राणी को हनन न करना चाहिए यावत् किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिये। आर्य पुरुषों ने हिंसा का निषेध किया है। अतः हिंसा में धर्म नहीं है। जिस प्रकार हमें सुख अभीष्ट है दुःख नहीं, उसी प्रकार संसार के समस्त प्राणियों को सुख अभीष्ट है, दुःख नहीं। अतः किसी प्राणी का हनन नहीं करना चाहिये। प्राणी का हनन करने से पाप का बन्ध होता है। इसलिए प्राणी वध का समर्थन करने वाला वचन अनार्यों का ही है, आर्य पुरुषों का
नहीं है। हिंसा में धर्म नहीं है। जो हिंसादि पाप कार्यों से निवृत्त हैं वे ही आर्य हैं और वे ही ' मोक्ष मार्ग पर चलने के अधिकारी हैं।
॥ इति चौथे अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त। चउत्थं अज्झयणं तइओदेसो
चौथे अध्ययन का तीसरा उद्देशक - चौथे अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में कर्म बंध तथा संवर का वर्णन किया गया गया है, इस तृतीय उद्देशक में तप का वर्णन किया जाता है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं -
(२४३) उवेहे णं बहिया य लोयं, से सव्वलोयंसि जे केइ विण्णू। कठिन शब्दार्थ - उवहे - उपेक्षा करो, विण्णू - विज्ञ-विद्वान्।
भावार्थ - जो लोग अहिंसा धर्म से बाह्य (विमुख) हैं उनकी उपेक्षा करो। जो अन्यतीर्थयों की उपेक्षा करता है वह समस्त लोक में सब विद्वानों में उत्तम है।
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