________________
१६२
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 888@@@@ @@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ @@@@@@@@@@@@@ परिघेत्तव्वा, ण परियावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा, एत्थवि जाणह, णंत्थित्थ दोसो।" आरियवयणमेयं।
भावार्थ - हम ऐसा कहते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं और ऐसी ही प्ररूपण करते हैं कि सभी प्राण, सभी भूत, सभी जीव और सभी सत्त्वों का हनन नहीं करना चाहिये, उनको शासित नहीं करना चाहिये, उन्हें जबरदस्ती पकड़ कर दास नहीं बनाना चाहिए, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिये और उन्हें प्राण रहित नहीं करना चाहिये। इस विषय में समझ लो कि अहिंसा के पालन में कोई दोष नहीं है। यह आर्य वचन है।
(२४२) पुव्वं णिकायसमयं, पत्तेयं पत्तेयं पुच्छिस्सामो, हं भो पावादुया! किं भे सायं दुक्खं उदाहु असायं? समिया पडिवण्णे यावि एवं बूया-सव्वेसिं पाणाणं, सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं, असायं, अपरिणिव्वाणं महन्भयं दुक्खं त्ति बेमि।
॥ चउत्थ अज्झयणं बीओद्देसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - णिकाय - व्यवस्था करके, समयं - सिद्धान्त की, पुच्छिस्सामि - पूलूंगा, हं भो पावादुया - हे प्रवादुको!, उदाहु - अथवा, समिया पडिवण्णे यावि - सम्यक् सिद्धान्त स्वीकार किये जाने पर, अपरिणिव्वाणं - अशांतिजनक, आनंद रहित, महन्मयंमहान् भयंकर - महान् भयकारी। ___ भावार्थ - पहले उनमें से प्रत्येक दार्शनिक को जो जो उसका सिद्धान्त है उसमें व्यवस्थापित कर हम पूछेगे - “हे प्रवादुको! आपको असाता (दुःख) प्रिय है या अप्रिय? यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय है तब तो वह उत्तर प्रत्यक्ष - विरुद्ध होगा, यदि आप कहे कि हमें दुःख प्रिय नहीं है तो आपके द्वारा इस सम्यक् सिद्धान्त को स्वीकार किये जाने पर हम आपसे यह कहना चाहेंगे कि "जैसे आपको दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही सभी प्राणी, सभी भूत, सभी जीव और सभी सत्त्वों को दुःख मन के प्रतिकूल है, अप्रिय है, अशांति जनक है और महाभयंकर है।" - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - इस लोक में जितने दार्शनिक हैं वे सभी अपने अपने दर्शन के अनुराग से
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org