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आचराग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध )
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दुःख, आरंभ से (२४४)
अणुवी पास, णिक्खित्तदंडा जे केइ सत्ता पलियं चयंति, णरे मुयच्च धम्मविउत्ति अंजू, आरंभजं दुक्खमिति णच्चा, एवमाहु सम्मत्तदंसिणो ।
पलियं
शरीर का
कठिन शब्दार्थ - अणुवीइ - अनुचिंतन कर, णिक्खिदंडा दण्ड को त्याग दिया है, पलित - कर्म का, चयंति त्याग करते हैं, क्षय करते हैं, मुयच्चा. श्रृंगार नहीं करने वाले अथवा कषाय विजेता, धम्मविऊ - धर्मवेत्ता - धर्म के ज्ञाता, अंजू - ऋजु - सरल, आरंभजं- आरम्भ (हिंसा) से उत्पन्न, आहु कहा है, एवं इस प्रकार, सम्मत्तसि-समत्वदर्शियों, सम्यक्त्वदर्शियों, समस्त दर्शियों ने।
भावार्थ - तू अनुचिंतन - विचार कर देख - जिन्होंने दण्ड (हिंसा) का त्याग किया है वे ही श्रेष्ठ विद्वान् हैं। जो सत्त्वशील मनुष्य प्राणी दंड से निवृत्त हुए हैं वे ही अष्ट कर्मों का क्षय करते हैं। जो शरीर के प्रति अनासक्त हैं, शरीर श्रृंगार के त्यागी हैं अथवा कषाय के विजेता हैं वे धर्म के ज्ञाता और सरल हैं। इस दुःख को आरम्भ (हिंसा) से उत्पन्न हुआ जान कर समस्त हिंसा का त्याग करना चाहिये- ऐसा सम्यक्त्वर्शीयों (समत्वदर्शीयों समस्तदर्शियों - सर्वज्ञों) ने कहा है । विवेचन प्रस्तुत सूत्र जो धर्म विरुद्ध हिंसादि की प्ररूपणा करने वाले परपाषंडी हैं। उनका संस् परिचय नहीं करने का निर्देश दिया है और ऐसा करने वाले को विद्वानों में
श्रेष्ठ कहा है।
वेणं पद का यही आशय है कि जो अहिंसादि धर्म से विमुख हैं उनकी उपेक्षा कर अर्थात् उनके विधि विधानों को उनकी रीति-नीति को मत मान, उनके सम्पर्क में मत आ उनको प्रतिष्ठा मत दे, उनके धर्म विरुद्ध उपदेश को यथार्थ मत मान, उनके आडम्बरों और लच्छेदार भाषणों से प्रभावित मत हो, उनके कथन को अनार्य वचन समझ ।
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Be age age
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जो पुरुष मन, वचन, काया से किसी प्राणी को दण्ड नहीं देता है, वह आठ कर्मों का क्षय कर मोक्ष प्राप्त करता है। यहाँ मन, वचन और काया से प्राणियों का विघात करने वाली प्रवृत्ति को दण्ड कहा है। हिंसा युक्त प्रवृत्ति भाव दण्ड है। यहाँ दण्ड, हिंसा का पर्यायवाची है । यहाँ प्रयुक्त 'मुयच्चा' शब्द का संस्कृत रूप होता है - मृतार्चा: मृत अर्चा:, अर्चा
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