________________
१५०
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) ®®®®®®®®®®®88888888888888888888888@RRRRE
कठिन शब्दार्थ - किं - क्या, अत्थि'- होती है, ओवाही - उपाधि, पासगस्स - सर्व द्रष्टा - केवली भगवान् के। ___भावार्थ - क्या सर्वज्ञ सर्वदर्शी केवली भगवान् के कोई भी उपाधि होती है या नहीं होती है? नहीं होती है - ऐसा मैं कहता हूं।
विवेचन - 'ज्ञानस्य फलं विरति' - ज्ञान का फल विरति है। अतः क्रोधादि के स्वरूप को जान कर साधक इनका त्याग कर दे। यही तीर्थंकर भगवान् का उपदेश है।
जिस वस्तु को ग्रहण किया जाय, उसे उपाधि कहते हैं। उपाधि दो प्रकार की होती है । १. द्रव्य उपाधि - स्वर्णादि भौतिक साधन सामग्री और २. भाव उपाधि - अष्ट कर्म। ____ सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् में द्रव्य उपाधि तो होती नहीं और भाव उपाधि में उन्होंने चार घाती कर्मों का क्षय कर दिया है। शेष चार कर्म भी कर्मबंधन के कारण नहीं बनते। केवल आयुकर्म के कारण उनका अस्तित्व मात्र रहता है अतः उन्हें उपाधि रूप नहीं माना गया है। क्योंकि आयु कर्म के साथ उनका भी क्षय कर केवली भगवान् मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
इस प्रकार द्रव्य उपाधि और भाव उपाधि संसार परिभ्रमण का कारण है और इनका त्याग संसार नाश का कारण है। इसलिए साधक को द्रव्य उपाधि और भाव उपाधि से निवृत्त होने का . पुरुषार्थ करना चाहिये। यही इस तीसरे अध्ययन का सार है।
॥ इति तृतीय अध्ययन का चतुर्थ उद्देशक समाप्त॥
॥ तृतीय शीतोष्णीय अध्ययन समाप्त॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org