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________________ तीसरा अध्ययन - चतुर्थ उद्देशक - तीर्थंकरों का उपदेश १४६ 单单单单单单參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參 है। जो जन्मदर्शी होता है वह मृत्युदर्शी होता है। जो मृत्युदर्शी होता है वह नरकदर्शी होता है। जो नरकदर्शी होता है वह तिर्यंचदर्शी होता है। जो तिर्यंचदर्शी होता है वह दुःखदर्शी होता है। ___विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में क्रोधादि का स्वरूप जानकर उसका त्याग करने वाले साधक की पहिचान बताई गयी है। क्रोधदर्शी आदि में दर्शी शब्द का अर्थ है - क्रोधादि के स्वरूप तथा परिणाम को ज्ञ परिज्ञा से जान कर, देख कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करने वाला। तीर्थंकरों का उपदेश . (२१८). से मेहावी अभिणिवटिजा, कोहं च-माणं च-मायं च-लोहं च-पिजं चदोसं च-मोहं च-गम्भं च-जम्मं च-मरणं च-णरयं च-तिरियं च-दुक्खं च एयं पासगस्स दसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स। कठिन शब्दार्थ - अभिणिवहिज्जा - त्याग दे, निवृत्त हो जाय। भावार्थ - वह मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम (राग), द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरक, तिथंच और दुःख को त्याग दे। यह दर्शन (उपदेश) सभी प्रकार के शस्त्रों से उपरत (निवृत्त) कर्मों का अन्त करने वाले सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् का है। (२१६) आयाणं णिसिद्धा सगडब्भि। भावार्थ - जो साधक आदान - कर्म के कारण हिंसादि को रोकता है वही स्वकृत कर्म का भेदन करता है। (२२०) किमत्थि ओवाही पासगस्स? ण विजइ? णत्थि त्ति बेमि। ॥ चउत्थोद्देसो समत्तो॥ . ॥ सीओसणीयं णामं तइयं अज्झयणं समत्तं ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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