________________
तीसरा अध्ययन - द्वितीय उद्देशक - विषयभोगों की निःसारता
१३३
88888888888
विषयभोगों की निःसारता
(१८७) आसेवित्ता एयमढें इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं बिइयं णो सेवे णिस्सारं पासियं णाणी।
कठिन शब्दार्थ - आसेवित्ता - सेवन कर, समुट्ठिया - समुत्थित - संयम में स्थित, बिइयं - दूसरी बार असंयम अथवा मृषावाद का, णिस्सारं - निःसार - सार रहित, पासियंदेखकर। .. भावार्थ - कितनेक व्यक्ति इस अर्थ (वध, परिताप, परिग्रह आदि असंयम) का सेवन
(आचरण) करके संयम साधना में संलग्न हो जाते हैं इसलिये वे पुनः उनका सेवन नहीं करते। . ज्ञानी पुरुष विषय सेवन को सार रहित जान कर उसकी अभिलाषा न करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में विषय भोगों की निस्सारता बताते हुए इनसे विरत रहने की प्रेरणा की गयी है। विषयभोग इसलिए निस्सार है कि उनके प्राप्त होने पर तृप्ति कदापि नहीं होती। इसीलिए भरत चक्रवर्ती आदि विषयभोगों को निस्सार समझ कर संयम के लिए उद्यत हो गये फिर वे पुनः उसमें आसक्त नहीं हुए और संयम का विधिवत् पालन कर मोक्ष प्राप्त किया। - "बिइयं णो सेवे' के स्थान पर 'बिइयं नासेवते, बीयं णो सेवे, बिइयं णो सेवते' पाठ भी मिलते हैं। टीकाकार ने इनका अर्थ करते हुए कहा है कि - "द्वितीयं मृषावादमसंयम वा नासेवते" - दूसरे मृषावाद का या असंयम (पाप) का सेवन नहीं करता।
(१८८) उववायं चवणं णच्चा, अणण्णं चर माहणे।
कठिन शब्दार्थ - उववायं - उपपात (जन्म), चवणं - च्यवन (मृत्यु), अणण्णं - अनन्य - संयम या रत्नत्रयी का, माहणे - माहन - "जीवों को मत मारो" इस प्रकार का उपदेश देने वाला मुनि अथवा श्रावक। - भावार्थ - उपपात और च्यवन निश्चित है यह जान कर हे माहन्! तू अनन्य - संयम का या रत्नत्रयी रूप मोक्ष मार्ग का पालन कर।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जीव की अनित्यता का संदेश देते हुए संयम या मोक्षमार्ग का आचरण करने की प्रेरणा दी गयी है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org