________________
१३४
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 88888888888888888888888888888888888888888
हिंसा का पाप
(१८९) से ण छणे, ण छणावए, छणं णाणुजाणए।
भावार्थ - वह किसी प्राणी की हिंसा न करे, हिंसा न करावें और हिंसा करने वाले की अनुमोदना भी न करे। .
विवेचन - 'छण' शब्द का रूपान्तर 'क्षण' होता है। "क्षणु हिंसायाम्" हिंसार्थक 'क्षणु' धातु से 'क्षण' शब्द बना है अतः प्रस्तुत सूत्र का अर्थ होता है स्वयं हिंसा न करे, न ही दूसरों से हिंसा कराए और हिंसा करने करने का अनुमोदन भी न करे।
(१९०) णिव्विंद णंदिं अरए पयासु अणोमदंसी णिसण्णे पावेहिं कम्मेहि। .
कठिन शब्दार्थ - णिव्विंद - घृणा कर, विरक्त होकर, णंदिं - आनंद से, अरए - अरक्त - रागरहित - अनासक्त, पयासु - स्त्रियों में, णिसण्णे - निवृत्त हो जाता है, अणोमदंसी- अनवमदर्शी - सम्यग्-दर्शन, ज्ञान चारित्र रूप मोक्षदर्शी।
भावार्थ - विषयानंद को घृणित समझ कर और स्त्रियों में आसक्ति रहित बन कर अनवमदर्शी - रत्नत्रयी रूप मोक्षदर्शी साधक पाप कर्मों से निवृत्त हो जाता है।
विवेचन - विषयभोगों की असारता, अस्थिरता एवं उनके दुःखद परिणाम को जान कर मुमुक्षु पुरुष विषयभोगों का त्याग कर देते हैं और संयम का पालन कर सभी कर्मों का क्षय कर देते हैं।
कषायों की भयंकरता
(१६१) कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे णिरयं महंतं। तम्हा य वीरे विरए वहाओ, छिंदिज सोयं लहुभूय गामी। कठिन शब्दार्थ - कोहाइ - क्रोधादि, माणं - मान को, हणिया - हनन (नष्ट) करे,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org