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________________ १३२ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 388888888888888 असंयत की चित्तवृत्ति (१८६) अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे से केयणं अरिहए पुरइत्तए से अण्णवहाए, अण्णपरियावाए, अण्णपरिग्गहाए, जणवयवहाए, जणवयपरियावाए, जणवयपरिग्गहाए। कठिन शब्दार्थ - अणेगचित्ते - अनेक चित्त वाला, केयणं - केतन - लोभेच्छा और तृष्णा रूप चलनी को, अरिहए - प्रयत्न करता है, पूरइत्तए - भरने का, पूरा करने का, अण्णवहाए - अन्य प्राणियों के वध के लिए, अण्णपरियावाए - अन्य को परिताप देने के लिए, अण्णपरिग्गहाए- दूसरों के परिग्रह के लिए, जणवयवहाए - जनपद के वध के लिए, जणवयपरियावाए - जनपद के परिताप के लिए, जणवयपरिग्गहाए - जनपद के परिग्रह के लिए। भावार्थ - यह (असंयमी) पुरुष अनेक चित्त वाला होता है। वह लोभेच्छा एवं तृष्णा रूप चलनी को धन रूपी जल से भरने का प्रयत्न करता है। वह दूसरों के वध के लिए, दूसरों के परिताप के लिए, दूसरों के परिग्रह के लिए तथा जनपद के वध के लिए, जनपद के परिताप के लिए और जनपद के परिग्रह के लिए प्रवृत्ति करता है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में असंयमी विषयासक्त लोभी पुरुष की व्याकुलता एवं विवेकहीनता का वर्णन किया गया है। वह पुरुष अनेकचित्त वाला होता है क्योंकि वह लोभ से प्रेरित होकर महारंभ महापरिग्रह के अनेक धंधे छेड़ता है उसका चित्त रात दिन उन्हीं धंधों की उधेड़बुन में लगा रहता है और अतिलोभी बनकर अपनी महातृष्णा को पूरी करने के लिए अन्य प्राणियों का वध करता है, उन्हें शारीरिक मानसिक कष्ट देता है। द्विपद (दास-दासी, नौकर-चाकर आदि) और चतुष्पद (चौपाये जानवरों) का परिग्रह - संग्रह करता है। इतना ही नहीं वह अपने तृष्णा रूपी खप्पर को भरने हेतु जनपद या नागरिकों का वध करने पर उतारू हो जाता है उन्हें नाना प्रकार की यातनाएं देने को उद्यत होता है तथा अनेक जनपदों को जीतकर अपने अधिकार में कर लेता है फिर भी उसकी इच्छाएं पूरी नहीं होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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