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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) GeegeeeeeeeERRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRED
विवेचन - ममत्व - बुद्धि-मूर्छा एवं आसक्ति, कर्म बंधन का मुख्य कारण है. अतः प्रस्तुत सूत्र में ममत्व बुद्धि एवं लोक संज्ञा के त्याग का निर्देश किया गया है।
जिसने आभ्यंतर और बाह्य दोनों प्रकार के परिग्रह का और ममत्व बुद्धि का त्याम कर दिया है, वही सम्यग्ज्ञानादि रूप मोक्षमार्ग को देखने वाला है। वही मेधावी और मतिमान् है।
रति-अरति त्याग
(१४६) णारइं सहइ वीरे, वीरे णो सहइ रई। जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे ण रजइ।
कठिन शब्दार्थ - ण - नहीं, अरई - अरति - संयम के प्रति अरुचि को, सहइ - सहन करता है, अविमणे - अविमनस्क, रई- रति - भोग रुचि को, रज्जइ - आसक्त होता है।
भावार्थ - वीर पुरुष अरति - संयम के प्रति अरुचि - को सहन नहीं करता और रति - भोगों के प्रति रुचि - को भी सहन नहीं करता है। इसलिए वह वीर साधक इन दोनों का ही त्याग कर देता है तथा अविमनस्क (शांत एवं मध्यस्थ) होकर शब्दादि विषयों में आसक्त नहीं . होता है।
विवेचन - जो साधक असंयम में रति और संयम में अरति नहीं करता, वह पुरुष वीर हैं क्योंकि वही आठ प्रकार के कर्मों को क्षय करने में समर्थ होता है। 'वीर' शब्द की व्युत्पत्ति भी इस प्रकार है -
'विशेषणेरयति - प्रेरयति अष्ट प्रकार कम्मारिषट्वर्ण वैति वीरः"
अर्थात् - जो आठ प्रकार के कर्मों को आत्मा से सर्वथा पृथक् करता है अथवा कामक्रोध आदि छह आंतरिक शत्रुओं को परास्त करता है, वह वीर पुरुष है।
(१४७) सहे फासे अहियासमाणे, णिविंद णंदि इह जीवियस्स।
कठिन शब्दार्थ - सहे - शब्द को, फासे - स्पर्श को, अहियासमाणे - सहन करते हुए, णिविंद - निवृत्त हो, णदि - आमोद-संतुष्टि को।
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