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________________ दूसरा अध्ययन - छठा उद्देशक - रति-अरति त्याग १०६ 即事事幽幽幽學部學部學事事部部參事部部參事會聯參部部參你事事都那串串串串串 भावार्थ - मुनि रति अरति उत्पन्न करने वाले शब्दों और स्पर्शों को सहन करते हुए असंयम जीवन में होने वाले आमोद - संतुष्टि आदि से निवृत्त - विरत होता है। (१४८) मुणी मोणं समायाय, धुणे कम्मसरीरगं, पंतं लूहं सेवंति, वीरा समत्तदंसिणो। . कठिन शब्दार्थ - मोणं - मौन - संयम को, ज्ञान को, समायाय - ग्रहण करके, धुणे - धुन डालता है, कम्मसरीरगं - कर्म शरीर को, पंतं - प्रान्त - नीरस आहार को, लूहं - रूक्ष आहार को, समत्तदंसिणो - समत्वदर्शी। .. - भावार्थ - मुनि मौन (संयम अथवा ज्ञान) को ग्रहण कर कर्म शरीर को धुन डाले। समत्वदर्शी वीर पुरुष नीरस और रूक्ष आहार का समभाव से सेवन करते हैं। (१४६) एस ओहंतरे मुणी, तिण्णे मुत्ते, विरए वियाहिएत्ति बेमि। कठिन शब्दार्थ - ओहंतरे - संसार सागर को तिरने वाला, तिण्णे - तीर्ण, मुत्ते - मुक्त, विरए - विरत, वियाहिए - कहा गया है। ___ भावार्थ - ऐसा मुनि संसार सागर को तिर चुका है, वह मुक्त, विरत कहा गया है, ऐसा मैं कहता हूँ। .. विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में आगमकार ने उपदेश देते हुए कहा है कि मुमुक्षु पुरुष को मनोज्ञ शब्दादि में राग और अमनोज्ञ शब्दादि में द्वेष नहीं करना चाहिए किन्तु मनोज्ञ और अमनोज्ञ दोनों प्रकार के विषयों में समभाव रखना चाहिये। यहाँ 'सद्दे' - शब्द के अंतर्गत रूप, रस और गंध विषय भी समझना चाहिए। __"धुणे कम्मसरीरगं' से तात्पर्य है, इस औदारिक शरीर को धुनने से - क्षीण करने से तब तक कोई लाभ नहीं, जब तक राग-द्वेष जनित कर्म (कार्मण) शरीर को क्षीण नहीं किया जाये। साधना का लक्ष्य आठ प्रकार के कर्मों को क्षीण करना ही है। यह औदारिक शरीर तो साधना का साधन मात्र है। हाँ, संयम के साधनभूत शरीर के नाम पर वह इसके प्रति ममत्व भी न लाये, सरस-मधुर आहार से इसकी वृद्धि भी न करे। इस बात का स्पष्ट निर्देश करते हुए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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