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दूसरा अध्ययन - छठा उद्देशक - ममत्व-बुद्धि त्याग
१०७ 那麼密邪邪邪邪邪邪邪邪邪邪那麼參那那那那那那那那那那那那串串串串串串串串 काया से सावध क्रियाएं करता हुआ, सएण - स्वकीय - अपने किये हुए, विप्पमाएण - अति प्रमाद के कारण, पव्वहीया - प्रव्यथिताः-दुःखों से संतृप्त एवं पीड़ित, णो णिकरणयाएउन कर्मों को न करे, कम्मोवसंती - कर्म उपशांत होते हैं। ___ भावार्थ - वह सुखाभिलाषी मन, वचन, काया से सावध क्रियाएं करता हुआ स्वकृत कर्मों के कारण व्यथित होकर मूढ बन जाता है और सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है। वह मूढ अपने अति प्रमाद के कारण ही पृथक्-पृथक् योनियों में परिभ्रमण करता हुआ संसार को बढाता है। जिस संसार में ये प्राणी विभिन्न दुःखों से संतप्त और पीड़ित होते हैं। यह जान कर जिनसे दुःखों की वृद्धि होती है, वे कर्म न करें। यह परिज्ञा (विवेक) कहा जाता है जिससे कर्मों की शांति - क्षय होता है।
'ममत्व-बुद्धि त्याग
(१४४) - जे ममाइयमई जहाइ से चयइ ममाइयं से हु दिट्ठपहे मुणी जस्स, णत्थि ममाइयं।
कठिन शब्दार्थ - ममाइयमई - ममत्व बुद्धि को, जहाइ - त्याग देता है, ममाइयं - ममत्व - परिग्रह को, दिट्ठपहे - मोक्ष पथ को देखने वाला। ...भावार्थ - जो ममत्व बुद्धि का त्याग करता है वह ममत्व (परिग्रह) का त्याग करता है। जिसने ममत्व का त्याग कर दिया है वही मोक्ष मार्ग को देखने वाला मुनि है।
(१४५) . तं परिण्णाय मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसण्णं से मइमं परिक्कमिज्जासित्ति बेमि।
• कठिन शब्दार्थ - वंता - छोड़कर, लोगसण्णं - लोक संज्ञा को, परिक्कमिजासि - पराक्रम (पुरुषार्थ) करे।
' भावार्थ - यह जानकर मेधावी लोक स्वरूप को जाने। लोक संज्ञा का त्याग करे तथा संयम में, पराक्रम करे। वास्तव में वही मतिमान् पुरुष कहा गया है - ऐसा मैं कहता हूँ।
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