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________________ १०६. ❀❀❀❀❀ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) ❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀❀ ❀❀ भावार्थ - कदाचित् वह एक जीवकाय का आरम्भ करता है तो वह छहों जीवकायों क आरम्भ करता है। विवेचन - कदाचित् कोई साधक प्रमत्त हो जाय और किसी एक जीवनिकाय की हिंसा करें तो क्या वह अन्य जीव कायों की हिंसा से बच सकेगा? इसका प्रस्तुत सूत्र में समाधान दिया गया है कि एक जीवकाय की हिंसा करने वाला छहों काय की हिंसा कर सकता है। जैसेयदि कोई अप्काय (जल) की हिंसा करता है तो जल में वनस्पति का नियमतः सद्भाव है। अतः अप्काय की हिंसा करने वाला वनस्पतिकाय की हिंसा भी करता ही है। जल के हलनचलन- प्रकम्पन से वायुकाय की भी हिंसा होती है, जल और वायुकाय के समारंभ से वहाँ रही हुई अग्नि भी प्रज्वलित हो सकती है तथा जल के आश्रित अनेक प्रकार के सूक्ष्म त्रस जीव भी रहते हैं। जल में मिट्टी (पृथ्वी) का अंश भी रहता है अतः एक अप्काय की हिंसा से छहों काय की हिंसा होती है । 'छसु' शब्द से पांच महाव्रत और छठा रात्रि भोजन विरमणव्रत भी सूचित होता है । जब एक अहिंसा महाव्रत खण्डित हो गया तो सत्य भी खण्डित हो गया, क्योंकि साधक ने हिंसा, त्याग की प्रतिज्ञा की थी । प्रतिज्ञा भंग असत्य का सेवन है। जिन प्राणियों की हिंसा की जाती है उनके प्राणों का हरण करना, चोरी है। हिंसा से कर्म - परिग्रह भी बढ़ता है तथा हिंसा के साथ सुखाभिलाष-कामभावना उत्पन्न हो सकती है। इस प्रकार टूटी हुई माला के मनकों की तरह एक महाव्रत टूटने पर सभी छहों व्रत टूट जाते हैं भग्न हो जाते हैं। - एक पाप (आस्रव) के सेवन से भी सभी पाप (आस्रवों) का सेवन हो जाता है। कहा भी है - 'छिद्रेस्वनर्था बहुली भवंति - एक छिद्र होते ही अनेक छिद्र (अवगुण ) हो जायेंगे । अतः प्रस्तुत सूत्र में कहा है कि एक काय के आरम्भ से सभी काय का आरम्भ और एक आस्रव के सेवन से समस्त आस्रवों का सेवन होता है। (१४३) सुट्टी लालप्पमाणे सण दुक्खेण मूढे विप्परियांसमुवेइ । सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वइ, जं सि मे पाणा पव्वहिया, पडिलेहाए णो णिकरणयाए एस परिण्णा पवच्चइ कम्मोवसंती । कठिन शब्दार्थ - सुहट्ठी - सुखार्थी, लालप्पमाणे Jain Education International - For Personal & Private Use Only प्रलाप करता हुआ - मन, वचन, www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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