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लोक विजय नामक दूसरा अध्ययन - इस अध्ययन का नाम 'लोक विजय' रखा गया है। यहाँ 'लोक' से आशय रागादि कषाय और शब्दादि विषय लिया गया है। क्योंकि संसार का मूल कारण रागादि कषाय है, ये जन्म-मरण के मूल को सिंचने वाले हैं। ___“चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइं पुणब्भवस्स" अर्थात् - ये चारों कषाय पुनर्भव जन्म-मरण की जड़ को सिंचते हैं। इसके छह उद्देशक हैं - प्रथम उद्देशक - संसार का स्वरूप, शरीर की अनित्यता, क्षणभंगुरता, पारिवारिकजनों की
अशरणता का चित्रण कर यह दर्शाया गया है कि जब तक इन्द्रियाँ रोगग्रस्त न होती उनकी शक्ति क्षीण नहीं होती तब तक मानव को आत्म-कल्याण में
प्रवृत्त हो जाना चाहिये। दूसरा उद्देशक - साधु जीवन अंगीकार करके अपनी अज्ञानता के कारण इस लोक और
परलोक के सुखों के लिए लोभ में पड़ जाते हैं और संयम की शुद्ध
आराधना नहीं करते वे अपना यह भव, परभव दोनों भव बिगाड़ देते हैं। तीसरा उद्देशक - इस उद्देशक में बतलाया गया है कि विवेकशील मनुष्य को उच्च गोत्र प्राप्त
होने पर हर्ष और नीच गोत्र प्राप्त होने पर कुपित नहीं होना चाहिये क्योंकि
जीव अपने कर्मों के अनुसार विविध योनियों में उत्पन्न होते हैं कभी उच्च
__और कभी नीच गोत्र आदि। चौथा उद्देशक - इस उद्देशक में भोगों को रोगों का कारण बतलाया गया है। इनमें आसक्त
प्राणी को अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। साथ ही बतलाया गया है कि अनेक कष्टों को सहन कर उसके द्वारा उपार्जित धन उसे व्याधि से मुक्त नहीं करा सकता है। इसलिए रोग अथवा दुःख की उत्पत्ति होने पर विद्वान्
पुरुष को कभी किसी प्रकार की उदासीनता नहीं लानी चाहिये। . पांचवां उद्देशक - इस उद्देशक में साधु को गृहस्थ के यहाँ से निर्दोष आहार-पानी ग्रहण करके
संयम का निर्वाह करना चाहिये, साथ ही किसी वस्तु पर ममत्व भाव नहीं रखने एवं शास्त्रोक्तरीति से संयम का.पालन करने तथा विषयभोगों के कटु
___ परिणाम को जानकर उनका त्याग करने का कहा है। . छठा उद्देशक - इस उद्देशक में बतलाया गया है कि साधु को किसी प्रकार का सावध
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