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(पापकारी) कार्य न करना चाहिये, न दूसरों से करवाना चाहिये, न करते हुए की अनुमोदना करनी चाहिये। साथ ही यह बतलाया गया है कि एक आस्रव का सेवन करने वाला, सभी आस्रवों का सेवन करने वाला, एक काय की हिंसा करने कराने वाला सभी काय की हिंसा करने वाला माना
गया है। तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा का यथोचित् पालन करने वाला ही - आराधक होता है। शीतोष्णीय नामक तीसरा अध्ययन - 'शीत' का अर्थ यहाँ अनुकूल और उष्ण का अर्थ प्रतिकूल किया गया है। मोक्षार्थी साधु को अपने साधनाकाल में अनेक अनुकूल और प्रतिकूल परीषह आते रहते हैं उन्हें उसे समभाव से सहन करना चाहिये। इसके चार उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में सुप्त और जागृत की चर्चा की गई है। आगम में सुप्त और जागृत के दो
भेद किये हैं। एक द्रव्य रूप से सुप्त और दूसरा भाव रूप से सुप्त । मिथ्यात्व एवं अज्ञान दशा को ज्ञानियों ने भाव से सुप्त कहा वे जागते हुए भी ज्ञानियों की दृष्टि में सुप्त है। जबकि उत्तम ज्ञान, दर्शन, चारित्र के मोक्षार्थी साधक द्रव्य से सुप्त होते हुए भी ज्ञानियों की दृष्टि में भाव से
जागृत हैं। .. दूसरा उद्देशक - इस उद्देशक में प्रभु महावीर स्वामी गौतम स्वामी को सम्बोधित करते हुए
कहते हैं - हे आर्य! तुम जन्म मरण के दुःखों को देखो, जिस प्रकार सुख तुम्हें प्रिय है उसी प्रकार संसार के समस्त जीवों को सुखप्रिय है। ऐसा समझ
कर कोई ऐसा कार्य मत करो जिससे दूसरों प्राणियों को दुःख हो। ' तीसरा उद्देशक - इस उद्देशक में बताया है कि जीव को मनुष्य भव, उत्तम कुल, धर्म श्रवण
आदि दुर्लभ अंगों को प्राप्त करके आत्म-कल्याण की ओर प्रवृत्ति करने में किचिंत्मात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिये। संयमी साधक को परीषह आने
पर समभाव से सहन करना चाहिये। चौथा उद्देशक - जो साधक सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र सहित संयम का पालन करता है वह :---
आठ कर्मों को क्षय करके मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
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