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दूसरा अध्ययन - पांचवाँ उद्देशक - कर्म समारंभ का कारण -
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संयम पालन में तत्पर साधु किसी गृहस्थ के घर पर भिक्षा आदि के निमित्त जाय तब उस गृहस्थ के पास दान योग्य सम्पूर्ण सामग्री के होते हुए भी यदि वह साधु को दान न देवे तो साधु उस पर क्रोध न करे। यदि वह गृहस्थ थोड़ा दान दे तो साधु उसकी निंदा न करे तथा यदि कोई गृहस्थ अपने घर में आने से साधु को मना कर दे तो साधु उसके घर से तुरन्त लौट जाये । यह मुनि का आचार है और मुनि को इस आचार का दृढ़ता के साथ पालन करना चाहिये ।
जीवन यापन के लिए भोजन आवश्यक है। मुनि भिक्षा वृत्ति के द्वारा आहारादि को प्राप्त करता है। भिक्षावृत्ति त्याग का साधन है, किन्तु यदि वह भिक्षा आसक्ति, उद्वेग तथा क्रोध आदि आवेशों के साथ ग्रहण की जाय तो वह भिक्षा त्याग के स्थान पर भोग बन जाती है। श्रमण की भिक्षावृत्ति भोग न बने इसलिए भिक्षाचर्या में मन को शांत, प्रसन्न और संतुलित रखने का उपदेश किया गया है।.
प्रस्तुत सूत्र में मुनिवृत्ति - मुनित्व की साधना को 'मौन' कहा गया है। क्योंकि "मुनेरिदं मौनं मुनिभिर्मुमुक्षुभिराचरितम् ॥”
॥ इति दूसरे अध्ययन का चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ बीअं अज्झयणं पंचमोद्देशो द्वितीय अध्ययन का पांचवां उद्देशक
द्वितीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में सूत्रकार ने 'भोग रोग का घर है' यह बताते हुए भोगों के त्याग का उपदेश दिया है। इस पांचवें उद्देशक में गृहस्थों के घर से निर्दोष आहार आदि ग्रहण करने की विधि तथा मूर्च्छा-ममत्व त्याग का वर्णन किया गया है। इस उद्देशक का प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं -
कर्म समारंभ का कारण
(१२२)
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारंभा कज्जंति,
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तंजा
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