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दूसरा अध्ययन - तृतीय उद्देशक - प्रमादजन्य दोष 888888888888888
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प्रमादजन्य दोष
(८५) तम्हा पंडिए णो हरिसे, णो कुप्पे, भूएहिं जाण पडिलेह सायं।
समिए एयाणुपस्सी, तंजहा-अंधत्तं, बहिरतं, मूयत्तं, काणत्तं, कुंटतं, खुजतं, वडभत्तं, सामत्तं, सबलत्तं, सह पमाएणं, अणेगरूवाओ जोणीओ, संधायइ, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदयइ। __कठिन शब्दार्थ - हरिसे - हर्षित, कुप्पे (कुज्झे) - कुपित, भूएहिं - भूतों (जीवों) के विषय में, जाण - जान, पडिलेह - अनुप्रेक्षा - सूक्ष्मता पूर्वक विचार कर, सायं - सुख, समिए - समित - समिति से युक्त, सम्यग्दृष्टि संपन्न, एयाणुपस्सी - यह देखने वाला, अंधत्तं- अंधापन, बहिरत्तं - बहरापन, मूयत्तं - गूंगापन, काणत्तं - काणापन, कुंटत्तं - हाथ आदि की वक्रता - टेढापन, खुजत्तं - कुब्जत्व - कुबडा होना, वडभत्तं - वामन(बौना)पन, सामत्तं - श्यामता-कालापन, सबलत्तं - चितकबरापन, अणेगरूवाओ - नाना प्रकार की, जोणीओ - योनियों में, संधायइ - दौडता है - जन्म लेता है, फासे - स्पर्शों - दुःखों का, पडिसंवेदयइ - संवेदन करता हैं।
भावार्थ - इसलिए पंडित (विवेकशील) पुरुष उच्च गोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न हो तथा नीच गोत्र प्राप्त होने पर कुपित (दुःखी) न हो। प्रत्येक जीव को सुखप्रिय है, यह तू देख, इस पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार कर।। . जो समित (समिति युक्त, सम्यग्दृष्टि संपन्न) है वह जीवों के इष्ट-अनिष्ट कर्म विपाक को इस प्रकार देखता है जैसे कि - अंधापन, बहरापन, गूंगापन, कानापन, हाथ आदि की वक्रता (लंगड़ापन), कुबड़ापन, बौनापन, कालापन, चित्तकबरापन (कुष्ठ होना) आदि की प्राप्ति प्रमाद (कर्म) से होती है। प्रमाद (कर्म) के कारण ही जीव नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेता है और नाना प्रकार के स्पर्शों - दुःखों को भोगता है।
विवेचन - संसार की विभिन्नता और विचित्रता का कारण जीव के स्वकृत कर्म है। द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से अंधा, बहरा, गूंगा आदि होना पूर्व जन्म के भारी कर्मों का ही फल है। विषयभोगादि प्रमाद में फंस कर प्राणी अनेक प्रकार की योनियों में परिभ्रमण करता रहता है।
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