________________
७६
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 888 8888888888888888888888888888
बीयं अज्झयणं तइओदेसो
द्वितीय अध्ययन का तृतीय उद्देशक लोकविजय नामक दूसरे अध्ययन के दूसरे उद्देशक में सूत्रकार ने धन, वैभव, परिवार आदि में रही हुई आसक्ति और लोभ को जीतने के विषय में वर्णन किया है। अब इस तीसरे उद्देशक में मान को जीतने के विषय में कथन किया जाता है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
गोत्रवाद का त्याग
. (८४) .. से असई उच्चागोए, असई णीयागोए। णो हीणे, णो अइरित्ते णो पीहए, इइ संखाए को गोयावाई? को माणावाई? कंसि वा एगे गिज्झे। ___ कठिन शब्दार्थ - असई - अनेक बार, उच्चागोए - उच्च गोत्र में, णीयागोए - नीच गोत्र में, हीणे - हीन, अइरित्ते - अतिरिक्त-विशेष-उच्च-वृद्धि, पीहए - स्पृहा-इच्छा, संखाए - जानकर, गोयावाई - गोत्रवादी, माणावाई - मानवादी, गिज्झे - आसक्त।
भावार्थ - यह जीव अनेक बार उच्च गोत्र में और अनेक बार नीच गोत्र में जन्म ले चुका है इसलिए नीच गोत्र में हीनता नहीं और उच्च गोत्र में विशिष्टता नहीं, ऐसा जान कर उच्च गोत्र की स्पृहा - इच्छा न करे। इस उक्त तथ्य को जान लेने पर कौन पुरुष गोत्रवादी होगा अर्थात् उच्च गोत्र का मद कर सकता है तथा कौन मानवादी होगा अर्थात् अभिमान कर सकता है अथवा कौन किसी एक स्थान या गोत्र में आसक्त हो सकता है। - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में गोत्रवाद का निरसन करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि यह जीव अनेक बार उच्च गोत्र और नीच गोत्र प्राप्त कर चुका है फिर कौन ऊंचा और कौन नीचा? ऊँच-नीच की भावना मात्र एक अहंकार (मद) है। अहंकार कर्म बंध का कारण है अतः गोत्र मद का त्याग कर देना चाहिये।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org