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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 8888888888888888888888888888888
(८६) से अबुज्झमाणे हओवहए जाइमरणमणुपरियट्टमाणे।
कठिन शब्दार्थ - अबुज्झमाणे - अबुध्यमानः-अज्ञानी जीव, हओवहए - हतोपहत - शारीरिक दुःखों से पीडित तथा उपहत - मानसिक पीड़ाओं से पीडित, जाइमरणं - जन्म मरण के चक्र में, अणुपरियट्टमाणे - भटकता रहता है।
भावार्थ - कर्मस्वरूप के बोध से रहित वह अज्ञानी जीव शारीरिक एवं मानसिक दुःखों तथा अपयश को प्राप्त करता हुआ जन्म मरण के चक्र में बारबार भटकता रहता है। ...
परिग्रहजन्य दोष
जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं खित्तवत्थुममायमाणाणं।
कठिन शब्दार्थ - जीवियं - असंयम जीवन, पुढो - पृथक्-पृथक्, पियं - प्रिय, खित्तवत्थुममायमाणाणं - खेत मकान आदि में ममत्व रखने वाला। ,
भावार्थ - जो मनुष्य क्षेत्र - खुली भूमि तथा वास्तु - भवन, मकान आदि में ममत्व . रखता है उसे यह असंयम जीवन ही प्रिय लगता है।
(८८) आरत्तं विरत्तं मणिकुंडलं, सह हिरण्णेण इत्थियाओ परिगिज्झ तत्थेव रत्ता।
कठिन शब्दार्थ - आरत्तं विरत्तं - रंग बिरंगे वस्त्र आदि, मणिकुंडलं - मणियाँ, कानों के कुण्डल, सह - साथ, हिरण्णेण - सोना आदि के,. इल्थियाओ - स्त्रियों को, परिगिज्झग्रहण करके, तत्थेव - उन्हीं में, रत्ता - आसक्त रहता है।
भावार्थ - वे अज्ञानी जीव रंगे बिरंगे वस्त्र, मणि, कुण्डल, हिरण्य-स्वर्ण आदि के साथ स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें आसक्त (अनुरक्त) रहते हैं।
... (८९) “इत्थ तवो वा, दमो वा, णियमो वा, दिस्सई" संपुण्णं बार जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासमुवेइ।
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