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________________ में होता है। किन्तु इन चारों अनुयोगों की पृथक्ता नहीं थी, उस समय प्रत्येक सूत्र में नयों का समवतार होता था। तब तक तो सभी आगम अनुयोग सहित ही पढ़ाये जाते थे। आर्य रक्षित ने आगामी पीढ़ी की बुद्धि की मंदता देखकर अनुयोग का पृथक्करण मात्र किया। किसी नये अनुयोगद्वार की रचना नहीं की। इसीलिए देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने आरक्षित के लिए - 'रयणकरंडगभूओ, अणुओगो रक्खिओ जेहिं' शब्दों का प्रयोग किया। इन्होंने अनुयोग की रक्षा की है, रचना नहीं। जो अनुयोग इनसे पूर्व सभी सूत्रों पर किया जाता था। उसे शिष्यों के लिए दुरुह समझकर मात्र आवश्यक (सामायिक अध्ययन) पर ही रखा। इतना काम आर्यरक्षित ने किया। जिससे अनुयोग नष्ट होते हुए बच गया एवं शिष्यों के भी सुगमता हो गई। इस तथ्य पर मद्देनजर रखते हुए स्थानकवासी परम्परा ने अनुयोग को आगमकालीन व्याख्या पद्धति समझ कर एवं आगमों की व्याख्याओं में सहयोगी मानकर तथा आर्यरक्षित के द्वारा तो मात्र पृथक्ककरण मानकर इसे भी आगमों के समान मान्यता दी है - जो पूर्ण उचित है। अर्धमागधी भाषा में संस्कृत भाषा का सम्मिश्रण होता ही है एवं अनुयोग तो व्याख्या पद्धति है। इसलिए शिष्यों को समझाने की दृष्टि से कुछ संस्कृत प्रयोग हो जाना अनुचित नहीं है। इसकी भाषा एवं रचनाशैली इस व्याख्या पद्धति की प्राचीनतमता सिद्ध करती है। भाषा एवं रचनाशैली तथा संस्कृत प्रयोग 'यह कृति आर्य रक्षित की है' यह ज्ञात करने में सहयोगी होते हैं। ___जैन आगम साहित्य में अनुयोग के विविध भेद प्रभेद किये गये हैं। नंदी सूत्र में अनुयोग के दो विभाग किये हैं। वहाँ पर दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्रं, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका ये पांच भेद किये गये हैं। उनमें अनुयोग चतुर्थ है। अनुयोग के मूल प्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग ये दो भेद किये गये हैं। मूल प्रथमानुयोग के अर्न्तगत भगवान् के सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्वभव के अलावा देवगमन, च्यवन, जन्म, अभिषेक, प्रव्रज्या, तप, केवल की प्राप्ति, तीर्थ की स्थापना, शिष्य समुदाय, गणधर, आर्यिकाएं मुनियों की विविध लब्धियों आदि के साथ सिद्ध गमन तक का सारा वर्णन प्रथमानुयोग में है। दूसरे शब्दों में भगवान् के सम्यक्त्व प्राप्ति से लेकर मोक्ष गमन तक का सारा वर्णन इस प्रथमानुयोग में है। दूसरा गण्डिकानुयोग है - गण्डिका का अर्थ है - समान व्यक्तव्यता से अर्थ का अनुसरण करने वाली वाक्य पद्धति और अनुयोग अर्थात् अर्थ प्रकट करने की विधि। इसकी रचना समय-समय पर मूर्धन्य मनीषी तथा आचार्यों ने की, जिसमें जैन परम्परा के अनेक महापुरुषों का वर्णन हुआ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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