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________________ प्रस्तुत अनुयोग द्वार सूत्र में सर्व प्रथम मंगलाचरण के रूप में पांच ज्ञानों का निरूपण हुआ है। प्रत्येक कार्य अथवा शास्त्र की निर्विघ्न पूर्णता के भारतीय सभी धर्मों में उसे प्रारम्भ करने से पूर्व मंगलाचरण की परम्परा रही हुई है, उसी का अनुसरण इस सूत्र के प्रारम्भ में किया गया है। मंगलाचरण न करना अनिष्ट का द्योतक माना जाता है। साथ ही इस सूत्र की रचना ज्ञान प्राप्ति और दर्शन विशुद्धि के लिए हुई है। अतः विघ्नों की उपशान्ति तथा निज आनंद एवं कल्याण की प्राप्ति के लिए शास्त्रकार ने सर्वप्रथम मंगल के रूप में "नाणं पंचविहं पण्णत्तं" (ज्ञान पांच प्रकार का कहा) कह कर सर्वप्रथम ज्ञान का वर्णन किया है। क्योंकि ज्ञान से समस्त जीव-अजीव का बोध हो जाता है इसलिए ज्ञान स्वयं मंगल ही नहीं अपितु परममंगल रूप है। . मंगलाचरण के पश्चात् आवश्यक अनुयोग का उल्लेख है। इसमें सहज ही पाठक बन्धुओं को यह अनुमान हो सकता है कि इसमें आवश्यक सूत्र की व्याख्या होगी। पर ऐसी बात नहीं है इसमें आवश्यक सूत्र का अनुयोग के विभिन्न द्वारों उपक्रम, निक्षेप, अनुगम, नय आदि के द्वारा विवेचन किया गया है। विवेचन एवं व्याख्या पद्धति कैसी होनी चाहिये यह बताने के लिए यथा स्थान आवश्यक दृष्टान्त भी प्रस्तुत किये गये हैं। वैसे आवश्यक सूत्र में श्रुत, स्कन्ध, अध्ययन नामक ग्रन्थ की व्याख्या, उसके छह अध्ययनों में पिण्डार्थ (अर्थाधिकार का निर्देश) उनके नाम और सामायिक शब्द की व्याख्या दी है। आवश्यक सूत्र के पदों की व्याख्या नहीं है। इससे स्पष्ट है कि अनुयोग द्वार सूत्र मुख्य रूप अनुयोग की व्याख्याओं के द्वारों का निरूपण करने वाला ग्रन्थ है। मात्र आवश्यक सूत्र की व्याख्या करने वाला नहीं है। चूंकि आगम साहित्य में अंग सूत्रों के बाद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान आवश्यक सूत्र को दिया गया है क्योंकि प्रस्तुत सूत्र में निरूपित सामायिक से ही श्रमण जीवन का प्रारम्भ होता है। प्रतिदिन प्रातः और संध्या के समय श्रमण जीवन के लिये जो आवश्यक (प्रतिक्रमण) किया जाता है वह सूत्र के अर्न्तगत है। अतः अंगों के अध्ययन से पूर्व आवश्यक सूत्र का अध्ययन आवश्यक माना गया। यद्यपि व्याख्या के रूप में भले ही सम्पूर्ण आवश्यक सूत्र की व्याख्या अनुयोग द्वार सूत्र में न दी गई हो। केवल ग्रन्थ के नाम पदों की व्याख्या दी गई हो, तथापि व्याख्या की जिस पद्धति को इसमें अपनाया गया है, वही पद्धति सम्पूर्ण आगमों की व्याख्या में भी अपनाई गई है। यदि यह कह दिया जाय कि आवश्यक सूत्र की व्याख्या के बहाने ग्रन्थकार ने सम्पूर्ण आगमों के रहस्यों को समझाने का प्रयास किया है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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