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________________ ५८ अनुयोगद्वार सूत्र तत्थ पढमं अज्झयणं सामाइयं। तस्स णं इमे चत्तारि अणुओगदारा भवंति, तंजहा - उवक्कमे १ णिक्खेवे २ अणुगमे ३ णए ४। शब्दार्थ - तत्थ - तत्र-वहाँ। भावार्थ - उन षट् संख्यात्मक अध्ययनों में पहला सामायिक अध्ययन है। उसके उपक्रम, निक्षेप, अनुगम एवं नय के रूप में चार अनुयोगद्वार हैं। - विवेचन - सामायिक के मूल में 'सम' शब्द है। 'सम' - समत्व का बोधक है। 'सम' के साथ आय शब्द का योग है। ‘समस्य आयः समाय' - जिसका अर्थ समत्व भाव की प्राप्ति या अनुभूति है। "समायः येन सिद्धयति, प्राप्यते वा तत्सामायिकम्" : जिससे समत्व भाव की प्राप्ति हो, उसे सामायिक कहा गया है। समस्त सावद्ययोगों के त्याग से प्राणी मात्र के प्रति समता का अभ्युदय होता है, आत्मस्थता प्राप्त होती है। चिन्तनधारा बहिर्गामिता का परित्याग कर अन्तर्गामिनी बनती है। यह अध्यात्मसाधना का मूल है। विवेचन की संगति के लिए पदार्थों को सन्निकटवर्ती बनाना इसका आशय है। निक्षेप - नाम, स्थापना आदि निक्षेपों के आधार पर सूत्रगत पदों का यथावत् व्यवस्थापन करना निक्षेप है। अनुगम - अनु शब्द अनुकूल या पीछे चलने का द्योतक है। सूत्र के अनुकूल या उसके अनुसार सुसंगत अर्थ करना अनुगम है। नय - अनंत धर्मात्मक वस्तु के अन्यान्य धर्मों को आपेक्षिक दृष्टि से गौण कर किसी एक अंश को मुख्य मानते हुए गृहीत करना, नय है। उपक्रम आदि का क्रमविन्यास - निक्षेप योग्यता प्राप्त वस्तु निक्षिप्त होती है और इस योग्य बनाने का कार्य उपक्रम द्वारा होता है। अतः सर्वप्रथम उपक्रम और तदनन्तर निक्षेप का निर्देश किया है। नाम आदि के रूप में निक्षिप्त वस्तु ही अनुगम की विषयभूत बनती है, इसलिये निक्षेप के अनन्तर अनुगम का तथा अनुगम से युक्त (ज्ञात) हुई वस्तु नयों द्वारा विचारकोटि में आती है, अतएव अनुगम के बाद नय का कथन किया गया है। (६१) उपक्रम के भेद से किं तं उवक्कमे? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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