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________________ आवश्यक के अर्थाधिकार और अध्ययन पुरुषों - मूल गुण और उत्तम गुण के धारक संयमी साधकों के प्रति आदर, सत्कार एवं सम्मान भाव गुणवत् प्रतिपत्ति के रूप में आख्यात है। यह वन्दना के रूप में आख्यात है। ४. स्खलित निन्दा - संयम की आराधना करते हुए प्रमादवश जो स्खलना, अतिचार या दोष-सेवन हो जाए, विशुद्ध अन्तर्भावना से उसकी निन्दा करना स्खलित निन्दा है, जो प्रतिक्रमण रूप है। प्रतिक्रमण का तात्पर्य अनात्म भाव से आत्मभाव में प्रतिक्रांत होना या लौटना है। .. ५. व्रण चिकित्सा - व्रण का अर्थ घाव है। संयम की आराधना में प्रमादवश होने वाला स्खलन, अतिचार या दोष का सेवन आध्यात्मिक व्रण है। जिस प्रकार मरहम आदि से शारीरिक व्रण या घाव की चिकित्सा की जाती है, उसी प्रकार प्रायश्चित्त रूप औषध के प्रयोग से ऐसे आध्यात्मिक व्रण या दोष का निराकरण करना व्रण चिकित्सा है, जो कायोत्सर्ग में अन्तर्गर्भित है। ६. गुणधारणा - प्रायश्चित्त से आत्मशोधन द्वारा दोषों का सम्मान कर आत्मा के मूल और उत्तर गुणों को अतिचार शून्य या दोष रहित रूप में पालन करना गुणधारणा है, जो प्रत्याख्यान द्वारा समायोजित है। (६०) . गाहा - आवस्सयस्स एसो, पिंडत्थो वण्णिओ समासेणं। .. एत्तो एक्केक्कं पुण, अज्झयणं कित्तइस्सामि॥१॥ तंजहा - सामाइयं १ चउवीसत्थओ २ वंदणं ३ पडिक्कमणं ४ काउस्सग्गो ५ पच्चक्खाणं ६। शब्दार्थ - आवस्सयस्स - आवश्यक का, एसो - यह, पिंडत्थो - पिण्डार्थ-सामुदायिक अर्थ, समासेणं - संक्षेप में, वण्णिओ - वर्णित, निरूपित किया, एत्तो - उसके, पुण - पुनः, अज्झयणं - अध्ययन का, कित्तइस्सामि - कीर्तित-प्रतिपादित करूंगा। भावार्थ - गाथा - इस प्रकार उपर्युक्त रूप में आवश्यक के सामुदायिक अर्थ का संक्षेप में वर्णन किया गया है। उन एक-एक अध्ययन का नामोल्लेख करूंगा। उनके-अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं - १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वंदन ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग तथा ६. प्रत्याख्यान। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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