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________________ अनुयोगद्वार सूत्र ११. समूह - नगर, ग्राम आदि के लोगों के समूह की तरह होने के कारण ये समूह रूप हैं। इस प्रकार स्कन्ध का सम्पूर्ण वर्णन कहा गया है। (५६) आवश्यक के अर्थाधिकार और अध्ययन आवस्सगस्स णं इमे अत्थाहियारा भवंति, तंजहा - गाहा - सावजजोगविरई, उक्कित्तण गुणवओ य पडिवत्ती। खलियस्स जिंदणा, वणति गिच्छ गुणधारणा चेव॥१॥ शब्दार्थ - अत्थाहियारा - अर्थाधिकार। भावार्थ - आवश्यक के ये अधिकार हैं - जैसे - १. सावद्ययोगविरति, २. उत्कीर्तन, ३. गुणवत्-प्रतिपत्ति, ४. स्खलित-निन्दा, ५. व्रण चिकित्सा एवं ६. गुणधारणा। विवेचन - अर्थाधिकार का तात्पर्य आवश्यक के अन्तर्गत करणीय, साधनीय, अभ्यसनीय इत्यादि का परिज्ञान या बोध है। यही तथ्य यहाँ वर्णित निम्नांकित छह अर्थाधिकारों द्वारा सूचित है। १. सावद्ययोगविरति - सावध का अर्थ पाप है। 'अवद्येन सहितं सावा' - पापयुक्त को सावध कहा जाता है। योग का अर्थ मानसिक, वाचिक, कांयिक कर्म है। वैसी पापपूर्ण प्रवृत्तियों से विरत होना सावद्ययोगविरति अर्थाधिकार है। . 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' - समस्त सावध योग का प्रत्याख्यान करता हूँ, सामायिक की यह भाषा इसका संसूचन करती है। २. उत्कीर्तन - सावद्ययोग आदि आत्मपरिपंथी, प्रतिकूल प्रपत्तियों से जो विरत हुए, कृत्स्नकर्मक्षय द्वारा जो सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए, जिन्होंने सदेहावस्था में जीवों को आत्मसिद्धि का समुपदेश दिया, ऐसे चौबीस तीर्थंकरों, सिद्धों, आध्यात्मिक महापुरुषों का संस्तवन 'उत्कीर्तन' कहा जाता है, जिससे आत्मशुद्धि के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा प्राप्त होती है। चतुर्विंशतिस्तव इसी का रूप है। ३. गुणवत् प्रतिपत्ति - सावध प्रवृत्तियों से विरत होकर साधना में संलग्न गुणी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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