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सचित्त द्रव्य स्कन्ध
सचित्ते दव्वखंधे अणेगविहे पण्णत्ते। तंजहा - हयखंधे, गयखंधे, किण्णरखंधे, किंपुरिसखंधे, महोरगखंधे, गंधव्वखंधे, उसभखंधे। सेत्तं सचित्ते दव्वखंधे।
शब्दार्थ - अणेगविहे - अनेक विध - अनेक प्रकार का, हय - अश्व, महोरग - विशाल सर्प।
भावार्थ - सचित्त द्रव्य स्कन्ध किस प्रकार का है?
सचित्त द्रव्य स्कन्ध के अनेक भेद हैं, जैसे - अश्व स्कन्ध, गज स्कन्ध, किन्नर स्कन्ध, किंपुरुष स्कन्ध, महोरग स्कन्ध, गंधर्व स्कन्ध, वृषभ स्कन्ध, ये सचित्त द्रव्य स्कन्ध हैं।
विवेचन - चित्त का तात्पर्य चेतना है। संज्ञान, उपयोग, विज्ञान आदि उसके पर्यायवाची हैं। यहाँ सचित्त स्कन्ध भेद में जो किनर और किंपुरुष शब्द आये हैं उनका अर्थ टीकाकार मलधारीय आचार्य हेमचन्द्र ने अनुयोगद्वार टीका में = 'व्यंतर जाति के देव' किया हैं। प्राचीन परम्परा से एवं आगम के इस वर्णन के अनुसार यही अर्थ होना उचित है। इन शब्दों का पौराणिक साहित्य में विशेष रूप से प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। विद्याधर, गन्धर्व आदि की तरह किन्नर एक विशेष जाति के जीवों का बोधक है। पौराणिक ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख मिलता है - "जिनके मस्तक अश्व के तथा शरीर मनुष्य के होते थे, उन्हें किन्नर कहा जाता है किन्नर शब्द में 'किम+नरः' का योग है। किम् का मकार व्यंजन संधि के नियमानुसार न में परिवर्तित हो गया है। जिसे देखकर सहसा मन में यह शंका उठी कि क्या यह मनुष्य है अथवा अश्व है? ऐसा भाव उदित होने के कारण किन्नर की शाब्दिक सार्थकता मानी जाती है।
भाषा शास्त्र के अर्थ परिवर्तन के विविध प्रकार के अनुसार वर्तमान काल में किन्नर शब्द नपुंसक के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
किम् पुरुष शब्द भी किन्नर की तरह एक विशिष्ट जाति के विशिष्ट प्रभाव युक्त विचित्र आकार युक्त जीवों के लिए प्रयुक्त होता रहा है, जिन्हें देखकर सहसा मन में यह भाव उदित हो कि क्या यह पुरुष - मनुष्य है या और कुछ?
इस शब्द के साथ भी भाषा शास्त्रीय परिवर्तन के शब्द बने। आज शब्दकोशों के अनुसार इसका अर्थ निकृष्ट पुरुष होता है। जिसकी निकृष्टता बहुल प्रकृति को देखकर सहसा मन में एक घृणा संपुटित प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या यह भी कोई मनुष्य है?
प्राचीन परम्परा से तो टीकाकार द्वारा किया हुआ अर्थ ही उचित समझना चाहिये। र संस्कृत हिन्दी शब्द कोश (वामन शिवराम आप्टे) पृष्ठः २७५
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