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________________ ३४ अनुयोगद्वार सूत्र ३. ध्रुवनिग्रह - 'ध्रुव' शब्द नियतता, निश्चितता का बोधक है। जीव के साथ अनादिकाल से संश्लिष्ट कर्म उनके परिणामस्वरूप संसार में आवागमन का निश्चित रूप से निग्रह या अवरोध करता है। अतएव उसकी ध्रुवनिग्रह संज्ञा है। ४. विशोधि - विशोधि शब्द 'वि' उपसर्ग पूर्वक ‘शोधि' के मेल से बना है। 'वि' वैशिष्ट्य बोधक है। "विशेषेण शोधि - शुद्धि पवित्रता वायेन भवति तद्विशुद्धि संज्ञम्"जिससे आत्मा का कर्मकालुष्य अपगत होता है, आत्मा विशेष रूप से शुद्धता प्राप्त करती है, वह आवश्यक विशोधि संज्ञक है। ५. अध्ययनषट्कवर्ग - सामायिक, प्रतिक्रमण आदि छह अध्ययन होने से यह अध्ययन षट्कवर्ग से सूचित है। ६. न्याय - "नीयते अनेन इति न्यायः" - जो सत्य तक-परम लक्ष्य तक पहुँचाता है, उसे न्याय कहा जाता है। विधिवत् भावावश्यक से यह सिद्ध होता है, इसलिए यह न्याय है। ७. आराधना - शुद्ध आत्मोपासना या परमात्मोपासना से संबद्ध होने से यह आराधना ८. मार्ग - साधक के जीवन की अंतिम मंजिल 'मुक्ति' तक पहुँचाने का यथार्थ पथ होने के कारण यह मार्ग संज्ञक है। (२६) श्रुत के प्रकार से किं तं सुयं? सुयं चउव्विहं पण्णत्तं। तंजहा - णामसुयं १ ठवणासुयं २ दव्वसुयं ३ भावसुयं ।। शब्दार्थ - सुयं - श्रुत, चउव्विहं - चतुर्विध - चार प्रकार का। भावार्थ - श्रुत का कैसा स्वरूप है? श्रुत चार प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है - १. नाम श्रुत २. स्थापना श्रुत ३. द्रव्य श्रुत तथा ४. भाव श्रुत। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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