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समाप्त हुआ। विवेचन
आज्ञा की अवहेलना करते हों, स्वच्छंद विहारी हों, किन्तु वैसा करते हुए भी दोनों समय आवश्यक आदि करने में तत्पर रहते हों, इनका यह आवश्यक लोकोत्तरिक कहा जाता है ।
यह ज्ञ- शरीर भव्य - शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक है।
यह नो आगमद्रव्यावश्यक का विश्लेषण है । इस प्रकार द्रव्यावश्यक का विवेचन
भावावश्यक
इस सूत्र में उन व्यक्तियों का वर्णन है, जो भ्रमण परिवेश में रहते हैं । कथनी साधु या श्रमण के रूप में आते हैं किन्तु उनका जीवन श्रमण धर्म के अनुरूप नहीं होता । आत्मोपासना के स्थान पर वे दैहिक अनुकूलता, सुविधा, सज्जा तथा सुंदरता आदि बनाए रखने में संलग्न रहते हैं। जिनाज्ञा के विपरीत चलते हैं किन्तु प्रदर्शन हेतु प्रातः - सायं आवश्यक क्रिया भी संपादित करते हैं।
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लोकोत्तर आवश्यक का ऐसा ही आशय है। जिनधर्म सर्वज्ञ, वीतराग प्रभु द्वारा उपदिष्ट है, साधुओं द्वारा आचरित होने से लोक में उत्तम है। किन्तु उपर्युक्त द्रव्यलिंगी साधुओं द्वारा संपादित होने से द्रव्यावश्यक में परिगणित है । यहाँ प्रयुक्त नो शब्द सर्वथा निषेधवाचक नहीं है, वह एकदेश प्रतिषेध सूचक है। क्योंकि प्रतिक्रमण रूप आवश्यक क्रियाओं में ज्ञान का सद्भाव होने से आगमरूपता है किन्तु क्रियाओं की अपेक्षा से उनमें आगमरूपता नहीं है। इस प्रकार यहाँ नो शब्द क्रियाओं की अपेक्षा से व्यवहृत हुआ है।
(२२)
भावावश्यक
से किं तं भावावस्सयं ?
भावावस्सयं दुविहं पण्णत्तं । तंजहा - आगमओ य १ णोआगमओ य२ ।
शब्दार्थ - भावावस्सयं
भावार्थ
भावावश्यक ।
भावावश्यक का स्वरूप कैसा है?
भावावश्यक दो प्रकार का प्रज्ञापित हुआ है
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१. आगमतः
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२. नोआगमतः - नो आगम भावावश्यक ।
विवेचन - भावावश्यक का तात्पर्य शुद्ध या वास्तविक आवश्यक से है। जहाँ अन्यान्य
आगम भावावश्यक
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