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अनुयोगद्वार सूत्र
सद्धर्म प्रतिकूल मिथ्या सिद्धान्तों का अनुसरण और प्रसार करते हैं, उन्हें कुप्रावचनिक कहा जाता है। वे वस्तुतः सद्धर्म के परिपंथी होते हैं। वे भिन्न-भिन्न रूपों में भिक्षादि द्वारा अपना भरण-पोषण करते हैं और विभिन्न देव, यक्ष, भूत-प्रेत आदि की अर्चना, पूजा करते हैं। निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धाविहीन ऐसे विविध मतानुयायिओं के लिए 'पाखंड' शब्द का प्रयोग हुआ है।
ये अपने-अपने तथाकथित मिथ्यात्व संपृक्त सिद्धांतों के अनुसार अपने द्वारा क्रियमाण पूजन, अर्चन को आवश्यक मानते हैं। मोक्षोपद्दिष्ट दृष्टि से वह यथार्थतः, भावतः आवश्यक नहीं है। किन्तु लोक प्रचलित रूप में आवश्यक होने से द्रव्यावश्यक माना गया है।
(२१) लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक से किं तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं?
लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं - जे इमे समणगुणमुक्कजोगी, छक्कायणिरणुकंपा, : हया इव उद्दामा, गया इव णिरंकुसा, घट्टा, मट्ठा, तुप्पोट्ठा, पंडुरपडपाउरणा, जिणाणमणाणाए सच्छंदं विहरिऊणं उभओ-कालं आवस्सयस्स उवटुंति. सेत्तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं। सेत्तं जाणयसरीरभविय-सरीरवइरित्तं दव्वावस्सयं। सेत्तं णोआगमओ दव्वावस्सयं। सेत्तं दव्वावस्सयं।
शब्दार्थ - समणगुणमुक्क - श्रमण गुण रहित, हया - अश्व, उद्दामा - उद्दण्ड, गयाहाथी, णिरंकुसा - उच्छृखल, घट्ठा - घृष्ट-रगड़ना या मलना, मट्ठा - मृष्ट-कोमल बनाना, तुप्पोट्ठा - ओठों को मक्खन आदि मलकर कोमल बनाना, पंडुरपडपाउरणा - ओढने-बिछाने के वस्त्रों को स्वच्छ सज्जित करते हैं, आणाए - आज्ञा, सच्छंद विहरिऊणं - स्वच्छंद विहारी, उवटुंति - उत्थित-तत्पर रहते हैं।
भावार्थ - लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक किस प्रकार का है?
जो साधु के गुणों - आचार से रहित हों, षट्कायिक जीवों के प्रति अनुकंपा रहित हों, अश्वों की तरह उद्दाम हों, हाथियों की तरह निरंकुश हों, शरीर पर तेल आदि मलते हों, उसे वैसा कर कोमल, मृदुल बनाते हों, ओष्ठों को चिकने बनाए रखने हेतु उन पर मक्खन आदि मलते हों, अपने उपयोग के वस्त्रों को उजले सुंदर बनाए रखने में तत्पर हों, जिनेन्द्र देव की
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