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कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक
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संमजणआवरिसणधूवपुप्फगंध-मल्लाइयाई दव्वावस्सयाई करेंति। सेत्तं कुप्पावयणियं दव्वावस्सयं।
शब्दार्थ - कुप्पावयणियं - कुप्रावचनिक, चरग - चरक-समुदाय के रूप में भ्रमणशील भिक्षोपजीवी, चीरिग - चीरिक - वस्त्र खंडों-चिथड़ों को जोड़कर धारण करने वाले, चम्मखंडियचमड़े के टुकड़ों को जोड़कर पहनने वाले, भिक्खोंड - भीख मांगकर भरण-पोषण करने वाले, पंडुरंग - पांडुरंग - देह पर भस्म या श्वेत-पीत मृत्तिका रमाने वाले, गोयम - गोतम - गाय या बैल को आधार बनाकर भिक्षायाचन करने वाले, गोव्वइय - गोव्रती - गाय की क्रिया के अनुरूप चर्याशील, गिहिधम्म- गृहधर्म - गृहस्थ धर्म को सर्वोत्तम मानने वाले, धम्मचिंतग - धर्मचिंतकधर्म के चिंतन मात्र में ही कल्याण मानने वाले, अविरुद्ध - माता, पिता, देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि सभी को समान मानते हुए उनके प्रति विनय प्रदर्शित करने वाले, विरुद्ध - समस्त धर्म विरुद्ध अक्रियावाद में विश्वास रखने वाले, वुड्ढसावग - वृद्ध श्रावक - सम्यक् क्रियाविहीन वयोवृद्ध तथाकथित श्रावक, पासंडत्था - पाखण्डस्थ (पाषण्डस्थ) - निर्ग्रन्थ प्रवचन में अश्रद्धाशील विविध संप्रदायावलंबी, तेयसा - तेजसा - तेज से, जलंते - प्रज्वलित, इंद - इन्द्र, खंद - स्कंद-स्वामी कार्तिकेय, रुद्द - रुद्र, सिव - शिव, वेसमण - वैश्रमण-कुबेर, णाग - नाग, जक्ख - यक्ष, भूय - भूत, मुगुंद - मुकुंद, अज्जाए - आर्या देवी, दुग्गाए - भैंसे पर आरूढ़ दुर्गा देवी, कोट्टकिरियाए - कोट्ट क्रिया देवी, उवलेवण - उपलेपन, संमज्जण - सम्मार्जन, आवरिसण : आवर्षण-जलाभिषेक।
भावार्थ - कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है?
चरक, चीरिक, चर्मखंडिक आदि कुप्रावचनिक प्रातःकाल होने पर इन्द्र, स्कंद, रूद्र, शिव, कुबेर आदि देव, नाग, यक्ष, भूत, मुकुंद, आर्यादेवी, कोट्ट क्रियादेवी आदि का उपलेपन, सम्मार्जन, जलाभिषेक, धूप, पुष्प, सुरभित द्रव्य, माला आदि द्वारा जो पूजन-अर्चन करते हैं, वह कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में कुप्रावचनिक शब्द प्रयुक्त हुआ है, उसका विशेष अर्थ है। प्रवचन का अर्थ प्रकृष्ट वचन, विशेष कथन या उपदेश है। "कुत्सितं प्रवचनं - कुप्रवचनं"जो प्रवचन कुत्सित, मिथ्यात्व रूप दोष से युक्त होता है, उसे कुप्रवचन कहा जाता है।
"कुप्रवचनेन संबद्धाः तत्कारो वा कुप्रावधनिकाः" - जो मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति
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