________________
५०६
अनुयोगद्वार सूत्र
६. समभिरुढ - यहाँ वस्तु का अवस्तु में संक्रमण करने का तात्पर्य है कि जो व्युत्पत्ति की भिन्नता के आधार पर भिन्न-भिन्न अर्थ को ग्रहण करता है, वह समभिरूढ नय है।
७. एवंभूतनय - यहाँ शब्द, अर्थ एवं दोनों को ग्रहण करने का आशय यह है कि वह सीधे व्युत्पत्ति से सिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करता है।
नयवर्णन की उपयोगिता णायम्मि गिण्हियव्वे, अगिण्हियव्वम्मि चेव अत्थम्मि। जइयव्वमेव इइ जो, उवएसो सो णओ णाम ॥५॥ सव्वेसि पि णयाणं, बहुविहवत्तव्वयं णिसामित्ता। तं सव्वणयविसुद्धं, जं चरणगुणट्ठिओ साहू॥६॥ सेत्तं णए।
॥ अणुओगद्दारा समत्ता॥ शब्दार्थ - णायम्मि - जानकर, गिव्हियव्वे - ग्रहण करने योग्य, जइयव्वमेव - प्रयत्न करना चाहिए, उवएसो - उपदेश, णिसामित्ता - सुनकर, चरणगुणढिओ - चारित्रगुण में स्थित, साहू - साधु।
भावार्थ - ग्रहण करने योग्य और न ग्रहण करने योग्य अर्थ को जानकर उपदेश के अनुरूप प्रयत्नशील होना चाहिए। इस प्रकार का जो उपदेश है, वह नय है॥५॥
सब प्रकार के नयों की बहुविध वक्तव्यता का श्रवण कर सर्वनय विशुद्ध सम्यक्त्व चारित्र में स्थित रहता है, वही साधु है।
यह नय का स्वरूप विश्लेषण है। इस प्रकार अनुयोग द्वार की वक्तव्यता समाप्त होती है।
प्रशस्ति गाथाएं सोलससयाणि चउरुत्तराणि, होंति उ इमंमि गाहाणं। दुसहस्स मणुट्ठभ-, छंदवित्तपमाणओ भणिओ॥१॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org