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________________ नय-विश्लेषण ५०५ मौलिक रूप में सात नय बतलाए गए हैं - १. नैगम २. संग्रह ३. व्यवहार ४. ऋजुसूत्र ५. शब्द ६. समभिरूढ तथा ७. एवंभूत। गाथाएं - अनेक मानों, मापदण्डों द्वारा जो वस्तु के स्वरूप का विवेचन करता है, वह नैगमनय है। यह इसका निरूक्ति-व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। सुनो, अवशिष्ट नयों का लक्षण इस प्रकार है, जिन्हें मैं कहने जा रहा हूँ॥१॥ _____सम्यक् रूप में गृहीत एक जाति को प्राप्त सामान्य रूप अर्थ जिसका विषय है, वैसा वचन संग्रहनय है, संक्षेप में सर्वज्ञों ने ऐसा बतलाया है। व्यवहार समस्त द्रव्यों में विनिश्चित अर्थ को बतलाता है॥२॥ __ ऋजुसूत्र वर्तमान भावी पर्याय को ग्रहण करता है। इस नय का यह विधिक्रम ज्ञातव्य है। ऋजुसूत्र की अपेक्षा विशिष्टतर प्रत्युत्पन्न विषय को शब्दनय बतलाता है॥३॥ . समभिरूढ नय वस्तु का अवस्तु में संक्रमण होना मानता है। एवंभूत नय शब्द एवं अर्थ इन दोनों की विशेष रूप से स्थापना करता है।।४।। . विवेचन - उपर्युक्त चार गाथाओं में सात नयों का संक्षेप में सारांश बतलाया गया है - . १. ममनय - इसे अनेक मानों से निरूपित होना बतलाया गया है, वह 'सामान्य विशेषग्राही नैगमः' इस परिभाषा के अनुरूप है। क्योंकि अनेक मानदण्डों से निरूपण करने का अर्थ - सामान्य तथा विशेषमूलक एकाधिक दृष्टिकोणों से वस्तु का स्वरूप बतलाना है। . संग्रहनय - इसमें पिण्डितार्थ को प्रतिपादित करने का उल्लेख किया गया है, इसका आशय सामान्य मात्रग्राही संग्रह से फलित होता है, क्योंकि सामान्य में समग्र अर्थों का समुच्चयात्मक अर्थ आ जाता है, जिसे गाथाकार ने पिण्डितार्थ कहा है। जैसे किसी पिण्ड में सभी कण समवेत रूप में सम्मिश्रित हो जाते हैं, उसी प्रकार संग्रह में सामान्य के अन्तर्गत सभी का समावेश हो जाता है। ३. व्यवहारमय - इस गाथा में सामान्य को विनिश्चितार्थ ज्ञापक कहा है। विनिश्चितार्थ वह होता है, जो व्यवहारोपयोगी विशेष धर्मग्राही हो। ४. ऋजुसूत्रनय .- यह प्रत्युत्पन्नग्राही बतलाया गया है। जिसका तात्पर्य भूत, भविष्य रहित केवल वर्तमानवर्ती पर्याय को ग्रहण करना है। ५. शब्द - जो ऋजुसूत्र की अपेक्षा सूक्ष्मता लिए रहता है, अनेक पर्यायवाची शब्दों द्वारा सूचित वाच्यार्थ के एकत्व को जो ग्रहण करता है, वह शब्दनय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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