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प्रशस्ति गाथाएं
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णयरमहादारा इव, उवक्कम दाराणुओगवरदारा। अक्खरबिंदुगमत्ता, लिहिया दुक्खक्खयट्ठाए॥२॥
॥अणुओगदारसुत्तं समत्तं॥ शब्दार्थ - सोलससयाणि - सोलह सौ, चउरुत्तराणि - चार अधिक, इमंमि - इसमें; दुसहस्स मणुट्टभ - दो हजार अनुष्टुप, णयरमहादारा - नगर के विशाल द्वारों, उवक्कम - उपक्रम, अक्खरबिंदुगमत्ता - अक्षर, बिन्दु, मात्रा, लिहिया - लिखित, दुक्खक्खयट्ठाए - दुःखक्षयार्थम् - दुःख के क्षय हेतु।
__ भावार्थ - अनुयोगद्वार सूत्र में कुल सोलह सौ चार (१६०४) गाथाएँ (गाथा छन्द के प्रमाण से)। इसका रचना प्रमाण दो हजार (२०००) अनुष्टुप् छन्द परिमित है॥१॥
नगर के विशाल श्रेष्ठ द्वारों के समान इसके (चार) मुख्य द्वार हैं। इसमें उल्लिखित अक्षर, बिन्दु और मात्राएँ समस्त दुःखों की नाश की हेतुभूत हैं॥२॥ . विवेचन - यद्यपि ये गाथायें मूल सूत्र में नहीं हैं। वृत्तिकारों ने भी इनकी वृत्ति नहीं लिखी है। तथापि सारांश अच्छा होने से अनुयोगद्वार सूत्र की पूर्ति के पश्चात् इनको उद्धृत किया गया है। गाथार्थ सुगम और सुबोध है।। .. संस्कृत में जिस छन्द को 'आर्या' कहा जाता है, प्राकृत में उसे 'गाहा या गाथा' कहा जाता है। उसका लक्षण निम्नांकित है -
'यस्या पादे प्रथमे द्वादश, मात्रास्तधातृतीयेषु।
अष्टादश द्वितीये, चतुर्थक पञ्चदशार्या॥' 'जिसके पहले और तीसरे चरण में बारह मात्राएं तथा दूसरे पद में अठारह और चतुर्थ पद में पन्द्रह मात्राएँ हों, वह आर्या या गाथा छन्द कहलाता है।
॥ अनुयोग द्वार सूत्र समाप्तम्॥
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