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भव्य,
शब्दार्थ - भविय जन्म स्थान से निकला हुआ, आदत्त - प्राप्त, सेयकाले - स्यात् काले भविष्यकाल में ।
भावार्थ - भव्यशरीर- द्रव्यावश्यक का स्वरूप कैसा है ?
अनुयोगद्वार सू
जे - जो, जोणिजम्मणणिक्खंते - योनि जन्म- निष्क्रांत
योनिरूप जन्म स्थान से निःसृत किसी जीव का शरीर भविष्य में वीतराग प्ररूपित भावानुरूप आवश्यक सीखेगा किन्तु वर्तमान में नहीं सीख रहा है, उस समय वह जीव (भावी पर्याय की अपेक्षा से) भव्य - शरीर द्रव्यावश्यक कहलाता है।
( प्रश्न) क्या कोई ऐसा दृष्टांत है ?
(समाधान) दो ऐसे घड़े रखे हैं, जिनमें से एक में मधु रखा जायेगा तथा दूसरे में घृत रखा जायेगा । (यद्यपि वर्तमान काल में दोनों रिक्त हैं किन्तु भविष्य में रखे जाने वाले मधु और घृत की अपेक्षा से उन्हें वैसा कहा जाता है ।)
इसी दृष्टांत के अनुसार भव्य शरीर द्रव्यावश्यक ज्ञातव्य है ।
विवेचन - नो आगम द्रव्यावश्यक के पहले भेद में अतीत में निष्पन्न स्थिति की वर्तमान में परिकल्पना कर अतीत के अनुरूप विवेचन करने की पद्धति निरूपित हुई है । यद्यपि वर्तमान में वैसा नहीं है किन्तु अतीत में था । उस दृष्टि से वहाँ प्रज्ञापन होता है ।
दूसरे भेद में भावी का भविष्यवर्ती पर्यायों का वर्तमान में अध्याहार किया जाता है। तत्काल उत्पन्न जीव जो भव्य हैं, जो आगे चलकर आवश्यक आदि का अभ्यास आदि करेगा, यद्यपि वर्तमान में इनसे सर्वथा रहित है, फिर भी वह आगामी स्थिति की आकलना, परिकल्पना के आधार पर नो आगम-भव्य- शरीर द्रव्यावश्यक कहा जाता है।
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(१८)
ज्ञ शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक
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से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्तं दव्वावस्सयं ?
जाणयसरीरभविय - सरीरवइरित्तं दव्वावस्सयं तिविहं पण्णत्तं । तंजहा लोइयं १ कुप्पावयणियं २ लोउत्तरियं ३ |
शब्दार्थ - लोइयं - लौकिक, कुप्पावयणियं कुप्रावचनिक, लोउत्तरियं लोकोत्तरिक । भावार्थ - ज्ञ - शरीर-भव्य- शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक किस प्रकार का है?
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